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________________ मग्गेण' जो पद दिए हैं, वे देखने में तृतीयान्त लगते हैं, लेकिन हैं असल में वे सप्तम्यन्त पद। छान्दस होने से प्राकृत भाषा में इस तरह का विभक्ति-व्यत्यय हो जाया करता है। इसलिए उनका अर्थ 'अन्यस्मिन् मार्गे' करना चाहिए। ___ उत्थानिका-सूत्रकार अब पृथ्वी-काय की यत्ना के विषय में विशेष उल्लेख करते हैं: इंगालं छारियं रासिं, तुसरासिंच गोमयं। ससरक्खेहिं पाएहिं, संजओतं नइक्कमे॥७॥ आङ्गारं क्षारराशिम् , तुषराशिं च गोमयम्। सरजस्काभ्यां पद्भ्याम् , संयतस्तं नातिक्रामेत्॥७॥ पदार्थान्वयः-संजओ-संयत-मुनि इंगालं-कोयलों की राशि छरियं रासिं-क्षार की राशि तुसरासिं-तुष की राशि च-और गोमयं-गोबर की राशि तं-उसको ससरक्खेहि-रज से भरे हुए पाएहिं-पगों से नइक्कमे-अतिक्रम न करे। मूलार्थ-साधु कोयलों की राशि, क्षार की राशि, तुष की राशि और गोबर की राशि को सचित्त रज से भरे हुए पगों से अतिक्रम न करे। टीका-यहाँ पर कोयलों की राशि आदि तो साधारण रूप से नाम गिना दिए हैं; पर वस्तुतः यहाँ पर सभी प्रकार की वस्तुओं से-राशियों से-आचार्य का अभिप्राय है और उपलक्षण से उन सब को यहाँ ग्रहण भी किया जा सकता है अथवा गाथा के दूसरे चरण में जो 'च' शब्द दिया है, उससे अन्य समस्त राशियों को ग्रहण किया जा सकता है। तब इस गाथा का अर्थ हुआ- मुनि, सचित्त रज से भरे हुए पगों से उक्त किसी भी राशि का उल्लंघन करके आगे न जाए। कारण कि उन पदार्थों के स्पर्श से जो पगों को सचित्त रज लगी हुई है, उस से उन जीवों की विराधना हो जाना सम्भव है। अतः मुनि किसी भी राशि को यदि उसके पगादि सचित्त रज आदि से भरे हुए हों तो अतिक्रम न करे। कारण कि साधु-वृत्ति में अत्यन्त विवेक की आवश्यकता है। तभी यह वृत्ति सुखपूर्वक पालन की जा सकती है, अन्यथा नहीं। उत्थानिका-इसके अनन्तर शास्त्रकार अब अप्-कायादि के विषय में यत्न करने के लिए कहते हैं: न चरेज वासे वासंते, महियाए वा पडंतिए। महावाए व वायंते, तिरिच्छसंपाइमेसु वा॥८॥ न चरेद्वर्षे वर्षति, मिहिकायां वा पतन्त्याम्। महावाते वा वाति, तिर्यक्-संपातिकेषु वा॥८॥ पदार्थान्वयः--वासे-वर्षा के वासंते-बरसने पर वा-अथवा महियाए-धुन्ध के पडंतिएपड़ने पर व-अथवा महावाए-महावायु के वायंते-चलने पर वा-अथवा तिरिच्छसंपाइमेसु-तिर्यक् पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [104
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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