________________ पदार्थान्वयः-से-वह संजए-साधु तत्थ-उनमें पवडंते-गिरता हुआ व-अथवा पक्खलंते-स्खलित होता हुआ पाणभूयाई-प्राणि और भूतों की त्रसे-त्रसों अदुव-अथवा थावरेस्थावरों की हिंसेज-हिंसा करता है। मूलार्थ-वह साधु उन गर्तादि स्थानों में गिरता हुआ तथा स्खलित होता हुआ, द्वीन्द्रिय आदि त्रस या पृथ्वी कायिक आदि स्थावर जीवों की अथवा दोनों प्रकार के जीवों की हिंसा होती है- द्वीन्द्रियादि जीवों की तथा एकेन्द्रियादि जीवों की अथवा त्रसों की वा स्थावरों की हिंसा करता है। टीका- इस गाथा में आत्म-विराधना और संयम-विराधना दोनों का दिग्दर्शन कराया गया है। प्राणी-भूत और त्रस-स्थावर ये दोनों परस्पर पर्यायवाची नाम जानने चाहिए। अपने शरीर को क्लेश पहुँचाना द्रव्य-विराधना है और श्री भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन करना तथा त्रस-स्थावर जीवों को क्लेश पहुँचाना भाव-विराधना कहलाती है। उत्थानिका- यदि इस प्रकार की विराधना होती है तो फिर साधु को क्या करना चाहिए ? अब इसी विषय में कहते हैं: तम्हा तेण न गच्छिज्जा, संजए सुसमाहिए। सइ अन्नेण मग्गेण, जयमेव परक्कमे॥६॥ तस्मात्तेन न गच्छेत् , संयतः सुसमाहितः। सत्यन्यस्मिन् मार्गे, यतमेव पराक्रामेत्॥६॥ पदार्थान्वयः-तम्हा-इसलिए सुसमाहिए-भलीभाँति से समाधि रखने वाला संजएसाधु अन्नेण मग्गेण-अन्य मार्ग के सइ-होने पर तेण-पूर्वोक्त मार्ग से न गच्छिज्जा-न जाए, यदि अन्य मार्ग न हो तो जयमेव-यत्न पूर्वक उक्त मार्गों में ही परक्कमे-गमन करे। मूलार्थ-इसलिए श्री भगवान् की आज्ञा का पालन करने वाला साधु, अन्य मार्गों के होने पर उक्त मार्गों से न जाए। यदि अन्य मार्ग न हो तो यत्नपूर्वक उक्त मार्ग में गमन करे। .. - टीका-इस गाथा में उत्सर्ग और अपवाद मार्ग पूर्वक गमन का वर्णन किया गया है। जेसै कि-पूर्वोक्त दोषों को जानता हुआ मुनि उक्त मार्गों में गमन न करे, यदि अन्य कोई मार्ग विद्यमान हो तो। यदि अन्य मार्ग कोई दृष्टिगोचर न हो तो यत्नपूर्वक और विशेष उपयोग रखता हुआ पूर्वोक्त मार्गों से गमन करे। कारण कि यदि बिना यत्न से उक्त मार्गों में गमन करेगा तो आत्म विराधना और संयम विराधना दोनों के होने की सम्भावना की जा सकेगी। अतएव अन्य मार्ग के अभाव में ही यत्नपूर्वक पूर्वोक्त मार्गों से ही गमन करने को कहा गया है। गाथा के दूसरे चरण में जो 'ससमाहिए'-'ससमाहितः' पद दिया है. उसका अर्थ वास्तव में 'भलीभाँति समाधि रखने वाला' होता है। लेकिन भलीभाँति समाधि वही रख सकता है, जो श्री भगवान् की आज्ञा का भलीभाँति पालन करता हो। इसलिए मूलार्थ में 'सुसमाहिए' पद का अर्थ 'श्री भगवान् की भलीभाँति आज्ञा पालने वाला' किया गया है। गाथा के तीसरे चरण में 'अन्नेण 103 ] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्