________________ से तेजस्कायादि की रक्षा करता हुआ भी गमन करे।' पृथ्वी को देखता हुआ चले' इसका सारांश यह है कि चलते समय प्रमाणपूर्वक भूमि को ही देखता हुआ चले, अन्य दिशादि का अवलोकन करता हुआ न चले, क्योंकि ईर्या-समिति में फिर उपयोग नहीं रहेगा। उपयोगपूर्वक गमन करने से ही ईर्या-समिति का पालन भलीभाँति किया जा सकेगा। उत्थानिका- गमन करते हुए साधु को संयम-विराधना के परिहारार्थ कहे जाने के पश्चात् शास्त्रकार अब आत्म-विराधना के परिहारार्थ कहते हैं: ओवायं विसमं खाणुं, विज्जलं परिवज्जए। संकमेण न गिच्छिज्जा, विज्जमाणे परक्कमे // 4 // अवपातं विषमं स्थाणुम्, विजलं परिवर्जयेत्। संक्रमेण न गच्छेत्, विद्यमाने परक्रमे॥४॥ पदार्थान्वयः-ओवायं-गर्तादि विसम-विषम स्थान खाणुं-ढूँठ विजलं-कीचड़ परिवजएछोड़ दे परक्कमे-अन्य मार्ग के विज्जमाणे-विद्यमान होने पर संकमेण-जलादि में काष्ठादि रखकर संक्रमण करके न गच्छिज्जा-न जाए। ___ मूलार्थ-साधु खड्डादि, विषम स्थान वा खीलादि के ऊपर होकर न जाए और कीचड़ के मार्ग को छोड़ दे तथा अन्य मार्ग के विद्यमान होने पर नदी आदि को संक्रमण करके न जाए। ___टीका-इस गाथा में मुख्यतया आत्म-विराधमा के परिहारार्थ कथन किया गया है। जैसे कि-जिस मार्ग में विशेष खड्डादि हों तथा वह विशेष ऊँचा वा नीचा हो तथा उस मार्ग में कीलें विशेष हों वा काष्ठादि रखे हुए हों, तो उन पर होकर न जाए। क्योंकि इस प्रकार करने से आत्म-विराधना वा संयम-विराधना होने की संभावना की जा सकती है तथा सूत्र में 'विजमाणे' पद दिया है इस के कथन करने का यह आशय है कि-यदि अन्य मार्ग विद्यमान न हो तो साधु यत्न द्वारा उक्त कथन किए हुए मार्गों से भी गमन कर सकता है। यद्यपि उत्सर्ग मार्ग से तो उक्त मार्गों का उल्लंघन नहीं करना चाहिए, किन्तु अपवाद मार्ग के आश्रित होकर यत्नपूर्वक उक्त मार्ग से भी जा सकते हैं। विषम स्थान के कथन करने से सब प्रकार के विषम मार्गों का ग्रहण किया गया है। उत्थानिका-अब सूत्रकार, इस बात का उपदेश करते हैं कि अव- पातादि मार्गों में जाने से क्या दोष उत्पन्न होते हैं: पवडते व से तत्थ, पक्खलंते व संजए। हिंसेज पाणभूयाई, तसे अदुव थावरे॥५॥ प्रपतन् वा स तत्र, प्रस्खलन् वा संयतः।। हिंस्यात्प्राणिभूतानि , त्रसानथवा स्थावरान्॥५॥ . पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [102