________________ अव्याक्षिप्त चित्त से तथा अनुद्विग्नमना होकर गमन करे' यह इस लिए कहा गया है ताकि गमन में उसे किसी प्रकार का दोष न लगे।उद्विग्रमना और व्याक्षिप्त चित्त से गमन करने से दो दोषों की शुद्धि नहीं की जा सकती 'गोचरी' शब्द 'गो' और 'चर' शब्द से बना है। इसका अर्थ यह है कि- साधु गोवत् भिक्षाचरी में जाए अर्थात् जैसे गौ जहाँ पर तृणादि का योग होता है उसी स्थान पर चली जाती है, ठीक उसी तरह साधु भी उत्तम, मध्यम और निम्न कुलों का विचार न करता हुआ तथा सरस वा नीरस आहार का विचार न करता हुआ समभाव से गोचरी में जाए। गाथा में 'गोचर' शब्द देकर भी एक 'अग्र' शब्द और दिया है- यथा 'गोअरग्गगओ'-'गोचराग्रगतः'। इसका तात्पर्य यह है कि गौ की चर्या सावध है, किन्तु मुनि की चर्या आधाकर्मादि दोषों से सर्वथा रहित है / उत्तम, मध्यम और निम्न कुलों के विषय में कतिपय आचार्यों का मन्तव्य धनादि की अपेक्षा से है और कतिपय आचार्यों का मन्तव्य जाति की अपेक्षा से है। साधु लोकव्यवहार की शुद्धि रखता हुआ गोचराग्र में प्रवेश करे। 'मन्द-मन्द चले' ऐसा जो कथन किया गया है, इसका अभिप्राय यह है कि शीघ्र गति से गमन करने में ईर्या-समिति की तथा आत्मा की विराधना होने की भी संभावना है। उत्थानिका- सूत्रकार गोचरी के लिए किए गए गमन के विषय में कुछ और भी विशेष प्रतिपादन करते हैं: पुरओ जुगमायाए , पेहमाणो महिं चरे। वजंतो बीयहरियाई, पाणे अ दगमट्टियं॥३॥ पुरतो युगमात्रया, प्रेक्षमाणो महीं चरेत्। वर्जयन् बीजहरितानि, प्राणिनश्चोदकमृत्तिकाम्॥३॥ पदार्थान्वयः- जुगमायाए-युगमात्रा अर्थात् शरीरप्रमाण से पुरओ-आगे पेहमाणो-देखता हुआ बीयहरियाई-बीज और हरितकाय को पाणे-प्राणियों को दगमट्टियं-सचित्त पानी और मृत्तिका को वजंतो-छोड़ता हुआ महिं-पृथ्वी पर चरे-गमन करे अ-च- शब्द से तेजस्कायादि को वर्जता हुआ भी. पृथ्वी पर गमन करे। मूलार्थ- साधु शरीरप्रमाण अर्थात् अपने हाथ से साढ़े तीन हाथ प्रमाण आगे देखता हुआ और बीज, हरितकाय, प्राणी, उदक और मृत्तिका को छोड़ता हुआबचाता हुआ- पृथ्वी पर चले। टीका- हर एक काल में प्रत्येक मनुष्य का शरीर अपने हाथ से साढ़े तीन हाथ प्रमाण हुआ करता है यह एक मानी हुई बात है। इसी लिए शरीर-प्रमाण का मूलार्थ में अपने हाथ से साढ़े तीन हाथ प्रमाण' अर्थ लिखा गया है। इसी को शकट का जूड़ा (जूला) प्रमाण' भी कहते हैं। साधु साढ़े तीन हस्त प्रमाण वा शकट के जूड़े प्रमाण आगे पृथ्वी को सिर्फ देखता हुआ ही गमन न करे, किन्तु बीज, हरित, प्राणी, द्वीन्द्रियादि जीव, उदक और पृथ्वीकाय तथा 'च' शब्द - 1 यथा-'गोचराग्रगतः' इति गोरिव चरणंगोचरः- उत्तमाधममध्यमकुलेषु अरक्तद्विष्टस्य भिक्षाटनम्। अग्रः- प्रधानोऽभ्याहृताधाकर्मादिपरित्यागेन, तद्गतः- तद्वर्ती मुनिः: भावसाधुः चरेत्- गच्छेत्। 101 ] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्