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________________ ऐसी वैराग्यमयी परिणति न हुई होती तो भला वह राजा, महाराजा एवं चक्रवर्ती के भोगों को या संसार में कहे जाने वाले सुखों को छोड़कर यह साधु-वृत्ति क्यों ग्रहण करता, जिसमें अनेक परीषह और उपसर्ग हमेशा आते रहते हैं। साधु-वृत्ति को चाहने वाले सम्यग्-दृष्टि जीव के इतने प्रकर्ष वैराग्यमय परिणाम होते हैं कि वह भोगोपभोगों की तो क्या बात है उनका आश्रय जो अपना शरीर है उसे भी एकदम त्याग देता, यदि शास्त्र ने वैसा करने का निषेध न किया होता, क्योंकि ऐसा करने से कर्म का बन्ध नहीं कटता जो कि पुनर्भव धारण कराता है। जब यह बात है, तब आप जान सकते हैं कि मुनि आहार-पानी के ग्रहण करने में कितनी अरूचि रखते हैं। वे सिर्फ शासनाज्ञा को शिरोधार्य करके ही उस की गवेषणा के लिए नगर में जाते हैं और इसी लिए उसके लाभालाभ में उन्हें समभाव रहता है। इसी लिए साधु के लिए शास्त्र में जैसे ध्यान, स्वाध्याय, प्रतिलेखन आदि करने के लिए आदेश दिया गया है और उसके लिए भिन्न-भिन्न समय निश्चित किया गया है, वैसे ही आहार-पानी के लिए गवेषणा करने के लिए भी आदेश दिया गया है और उसके लिए समय निश्चित किया गया है। अन्यान्य कर्तव्यों के अतिरिक्त आहार-पानी की गवेषणा करना भी शासन में साधु का एक कर्त्तव्यं बतलाया गया है। यदि साधु गवेषणा का जो समय निश्चित है, उसमें न जाकर पहले या बाद में उसके लिए जाए तो उसे अनेक दोष लगेंगे। जिनका वर्णन आगे शास्त्रकार स्वयं करेंगे। अतएव भिक्षा के काल में ही भिक्षा के लिए साधु को प्रवृत्ति करनी चाहिए। साधु जब तक पिण्डैषणा में अर्थात् आहारपानी की गवेषणा में असंभ्रान्त और अमूर्छित न होंगे, तब तक वे उसमें लगने वाले दोषों का परिहार-बचाव-नहीं कर सकते। इसी लिए शास्त्रकार ने गाथा में 'असंभंतो' 'अमुच्छिओ' ये दो पद दिए हैं। उत्थानिका- साधु किस स्थान पर भिक्षा की गवेषणा करे और उसके लिए किस प्रकार से गमन करे ? सूत्रकार अब इसी विषय में कहते हैं: से गामे वा नगरे वा, गोअरग्गगओ मुणी। चरे मंदमणुव्विग्गो,अव्वक्खित्तेण चेयसा॥२॥ स ग्रामे वा नगरे वा, गोचराग्रगतो मुनिः। चरेद् मन्दमनुद्विग्नः, अव्याक्षिप्तेन चेतसा॥२॥ पदार्थान्वयः- गोअरग्गओ-गोचरान में गया हुआ से-वह मुणी-साधु गामे वा-ग्राम में अथवा नगरे वा-नगर में अथवा अन्य खेटकादि में अणुव्विग्गो-उद्वेग रहित अव्वक्खित्तेणअविक्षिप्त चेयसा-मन से मंदं-शनैः शनैः चरे-जाए। मूलार्थ- गोचरान में गया हुआ वह असंभ्रान्त मुनि ग्राम में, नगर में या अन्य खेटकादि में उद्वेगरहित और अव्याक्षिप्त चित्त से शनैः शनैः गमन करे। टीका- गाथा के प्रथम चरण से शास्त्रकार ने गोचरी के योग्य स्थान का और शेष तीन चरणों से गोचरी के लिए किए गए गमन का प्रकार बतलाया है। 'गोचरी के लिए साधु १'यदि प्रकोष्ठमादायनस्याद्बोधो निरोधकः'- आत्मानुशासन। पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [100
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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