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________________ टीका- साधु की दिनचर्या सब विभाजित की हुई है। जैसे कि- सूर्योदय के पश्चात् विधिपूर्वक प्रतिलेखनादि कर लेने के बाद साधु दिन के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करे। तदनु ध्यान करे। तृतीय प्रहर में उपयोगपूर्वक भिक्षा का समय जानकर किसी भी जीव का अन्तराय न लेते हुए और अपने चित्त की वृत्ति को ठीक करते हुए अर्थात् अलाभादि के भय से चित्तवृत्ति को व्याकुल न करते हुए तथा आहार वा शब्दादि विषयों में मूछित न होते हुए साधु इस वक्ष्यमाण क्रम से अन्न और पानी की गवेषणा करे। शास्त्र में जो जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, काल और आकाश, ये छ: द्रव्य कहे गए हैं, उनमें से जीव-द्रव्य सब से श्रेष्ठ है / यह चेतन है और सब अचेतन हैं। यह सब को जानने वाला है और इसे कोई नहीं जान सकता। यह जीव-द्रव्य सब का पथ-प्रदर्शक है; मार्ग-भ्रष्ट को सन्मार्ग सुझा देने वाला है; सब का कल्याणकारी है; सब का शासक है; त्रिजगद्वन्द्य है; सर्वोच्च सुखों का केन्द्र है लेकिन जब तक इसकी शक्तियाँ और-और कामों में-भोगोपभोगों के भोगने में-लगी रहती हैं-फँसी रहती हैं, तब तक इसके स्वभाव-स्वरूप का पूर्ण विकास नहीं हो पाता, और-और कामों में यह अपनी मूर्खता से फँसा रहता है और वह मूर्खता इसकी सिर्फ इतनी सी ही है कि इसे अपने स्वरूप का बोध नहीं हैं- ज्ञान नहीं है। यह नहीं पहचानता कि मैं कैसी अद्भुत-अचिन्त्य-शक्ति वाली चीज़ हूँ। यही इसकी सबसे बड़ी भूल है। - जब इसको अपने स्वरूप का ज्ञान हो जाता है; अपनी अद्भुत, परमोत्कृष्ट, आनन्दघन, त्रिजगद्वन्द्य चेतनशक्ति का पता लग जाता है, तब वह बड़ा प्रसन्न होता है। अब तक जो वह गलती में फंस रहा था, उसका उसे बड़ा पछतावा रहता है। फिर तो बस वह उसी में मग्न रहना चाहता है। अपना स्वरूप उसे इतना रूचिर और प्रिय प्रतीत होता है कि उससे वह क्षण भर भी अलग नहीं रहना चाहता। उसी में वह अनन्तकाल के लिए निमग्न हो जाना चाहता है। उसको फिर भोगोपभोगों में एवं संसार के और-और कामों में थोड़ा भी समय बिताना और अपनी शक्ति उधर लगाना अच्छा नहीं लगता। संसार के समस्त विषय उसे विष-तुल्य मालूम होते हैं। इस समय वह अनुभव करता है कि यह मुझे एक ऐसे उत्तम एवं समीचीन पदार्थ का दिग्दर्शन हुआ है, जिसका पता तक मुझे अब तक न था। यही जीव का सम्यग-दर्शन कहलाता है। .. जीव की यह सम्यग्दृष्टि स्थिति, अन्तरङ्ग कारण- मोहनीय-कर्म एकदेश दर्शनमोहनीय के क्षय, क्षयोपशम अथवा उपशम के हो जाने से होती है और बहिरङ्ग कारण- शास्त्रश्रवण, सत्समागम, तीर्थङ्करादि के दर्शन आदि अनेक हैं। ये बहिरङ्ग कारण कभी-कभी किसी जीव के सम्यग्दर्शन होने के लिए नहीं भी होते। लेकिन अन्तरङ्ग कारण- जो मोहनीय का क्षय, क्षयोपशम अथवा उपशम है, उसका होना आवश्यक है। ___जीव की परिणति जब ऐसी वैराग्यमयी हो जाती है, तभी वह साधु-वृत्ति को धारण करता है। इस सम्यग्दर्शन की अवस्था में तो जीव को सिर्फ अपने स्वरूप का भान हुआ है, विश्वास हुआ है। अब उसे प्राप्त करने की कोशिश में वह लगता है। इसी लिए वह साधुअवस्थां धारण करता है। साधु-अवस्था चारित्र की अवस्था है। चारित्र क्रियाप्रधान होता है और क्रिया ही किसी कार्य की सिद्धि करती है। इसी लिए शास्त्र में लिखा है कि पहले सम्यग्दर्शन होता है, बाद में सम्यक्चारित्र ठीक ही है, पहले किसी कार्य की रूचि हो जाने के बाद ही जीव को उसके प्राप्त करने की चेष्टा पैदा होती है। साधु-वृत्ति के धारण करने के पहले यदि जीव की 99 ] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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