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________________ अह पिण्डेसणा पंचमझयणं। अथ पिण्डैषणा पञ्चमाध्ययनम्। . चतुर्थ अध्ययन में साधु के मूल गुणों के विषय में कुछ वर्णन किया गया था। महाव्रत मूल गुणों के अंदर गर्भित हैं। अब इस पञ्चम अध्ययन में उत्तर गुणों के विषय में कुछ कहा जाएगा। चतुर्थ अध्ययन में षड्जीव-निकाय की रक्षारूप धर्माचार साधु के लिए कहा गया है। लेकिन साधु धर्माचार स्वशरीर की रक्षा करते हुए ही पाल सकता है। शरीर की रक्षा में आहार एक मुख्य कारण है। इस पञ्चम अध्ययन में इसी का वर्णन है अर्थात् साधु अपने गृहीत व्रतों की रक्षा करता हुआ किस प्रकार से आहार ग्रहण करे, इस बात का वर्णन इस अध्ययन में है। जिसके ग्रहण करने में साधु के व्रतों में रञ्चमात्र भी दोष न लगने पाए, ऐसे आहार को 'निरवद्य ' और जिसके ग्रहण करने में उनके व्रतों में दोष लगे. उसे 'सावद्य आहार' कहते हैं। साध को सावद्य आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए। आहार के ग्रहण करने में किस-किस तरह से दोष आते हैं और किस किस तरह से उनका निराकरण होता है इत्यादि बातों का वर्णन इस अध्ययन में है। इसी लिए इसका नाम 'पिण्डैषणा अध्ययन' है। क्योंकि 'पिण्डेसणा'- 'पिण्डैषणा' शब्द का अर्थ है- 'पिण्ड' अर्थात् आहार और 'एषणा' अर्थात् दोषादोषनिरीक्षण। उत्थानिका- उसकी प्रथम गाथा इस प्रकार है:संपत्ते भिक्खकालंमि, असंभंतो अमुच्छिओ। इमेण कमजोगेणं, भत्तपाणं . गवेसए॥१॥ संप्राप्ते भिक्षाकाले, असंभ्रान्तः अमूच्छितः। अनेन क्रमयोगेन, भक्तपानं गवेषयेत्॥१॥ पदार्थान्वयः- भिक्खकालंमि-भिक्षा का समय सपत्ते-हो जाने पर असं-भंतो-चित्त की व्याकुलता को छोड़ कर अमुच्छिओ-आहारादि में मूर्च्छित न होता हुआ इमेण कमजोगेणं-इस विधि से भत्तपाणंअन्न-पानी को गवेसए-खोजे-ढूँढ़े। मूलार्थ- भिक्षा का समय हो जाने पर साधु चित्त की व्याकुलता को छोड़कर आहारादि में मूच्छित न होता हुआ इस क्रम से- आगे कहे जाने वाले तरीके से- अन्नपानी की गवेषणा-खोज-करे।
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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