________________ कम्मुणा-मन, वचन और काय की क्रिया से न विराहिज्जासि-विराधना न करे। त्ति बेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ। मूलार्थ-सदा यत्न से प्रवृत्ति करने वाला सम्यग्दृष्टि जीव, दुर्लभ श्रामण्यभाव को प्राप्त करके इन षड़जीव-निकाय के जीवों की मन, वचन और काय से विराधना कदापि न करे। टीका-इस गाथा में जो 'दुल्लहं लहित्तु सामण्णं' पद दिया है, इसका भाव यह है कि संसारी प्रत्येक पदार्थ सुलभतापूर्वक प्राप्त हो सकता है, किन्तु ज्ञान-दर्शनपूर्वक चारित्र की प्राप्ति दुर्लभता से होती है। सो यदि किसी आत्मा को पूर्व क्षयोपशमभाव के कारण अत्यन्त दुर्लभ श्रामण्यभाव प्राप्त हो गया हो तो फिर वह प्रमादादि द्वारा वा मन, वचन और काय से कदापि उस दुर्लभ चारित्र की विराधना न करे। साथ ही इस गाथा में इस बात का भी प्रकाश किया गया है कि सम्यग्द्दष्टि आत्मा सदैव यत्न करने वाली होती है तथा यत्न करने वाली सम्यग्दष्टि बन जाती है- मेघ कुमारवत्। अतः षट्काय के जीवों की विराधना कदापि नहीं करनी चाहिए। यदि यहाँ ऐसे कहा जाए कि यहाँ पर 'षट्काय' ही शब्द क्यों दिया गया है? इसका समाधान यह है कि-संसारी जीवों के रहने के षट् ही स्थान हैं। यद्यपि सिद्धात्मा जीव हैं. परन्त उनकी संज्ञा अकायिक है। इसलिए वे षटकाय के जीवों की गणना में नहीं लिए गए। इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन में -1. जीवाजीवाभिगम, 2. आचार, 3. धर्म-प्रज्ञप्ति, 4. चारित्र-धर्म. 5. यत्न (चरण) विषय और 6. उपदेशाधिकार (धर्माधिकार), इन छ: विषयों का वर्णन अधिकाररूप से किया गया है। जब तक जीव को , जीव और अजीव का सम्यक्तया अवबोध नहीं होता, तब तक वह आचार-धर्मविषय-में प्रविष्ट हो ही नहीं . सकता / जब तक जीव आचार-धर्म से अपरिचित है, तब तक वह धर्म-प्रज्ञप्ति किस प्रकार कर सकता है? जब तक जीव धर्म-प्रज्ञप्ति से अपरिचित है, तब तक वह चारित्र-धर्म का अधिकारी किस प्रकार माना जाएगा? जब तक जीव चारित्र-धर्म का अधिकारी नहीं है, तब तक वह यत्न-विषय में उद्यत किस प्रकार हो सकेगा ? जब तक वह यत्न-विषय में उद्यत ही. नहीं है तब तक वह उपदेश करने वा सुनने का अधिकारी किस प्रकार माना जा सकता है ? इसलिए जीव को पहले जीवाजीव का अवबोध सम्यक्तया प्राप्त करना चाहिए। तत्पश्चात् उपरोक्त सकल फलपरम्पराएँ उसे अनायास ही प्राप्त होती जाएंगी। - 'इस प्रकार श्री सुधर्मास्वामी श्रीजम्बूस्वामी जी के प्रति कहते हैं कि-हे जम्बू ! जिस प्रकार मैंने श्रमण भगवान् श्री महावीर स्वामी जी से षड्जीव-निकाय नामक अध्ययन का अर्थ श्रवण किया है, उसी प्रकार मैंने तुम्हारे प्रति कहा, अपनी बुद्धि से मैंने इसमें कुछ भी नहीं कहा है।' षड्जीवनिकाध्ययन समाप्त / चतुर्थाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [97