________________ पच्छावि ते पयाया, खिप्पं गच्छंति अमरभवणाइं। . जेसिं पिओ तवो संजमो य खंती य बंभचेरं च // 28 // पश्चादपि ते प्रयाताः, क्षिप्रं गच्छन्ति अमरभवनानि। येषां प्रियः तपः संयमश्च क्षान्तिश्च ब्रह्मचर्यञ्च // 28 // पदार्थान्वयः- जेसिं-जिनको तवो-तप य-और संजमो-संयम य-तथा खंतीक्षमा च-और बंभचेरं-ब्रह्मचर्य पिओ-प्रिय हैं ते-वे पच्छावि-पिछली अवस्था में भी-वृद्ध हो जाने पर भी पयाया-संयम मार्ग में चलते हुए खिप्पं-शीघ्र अमरभवणाइं-देवों के आवासों के प्रति गच्छंति-जाते हैं। मूलार्थ-जिन पुरुषों को तप, संयम, क्षमा और ब्रह्मचर्य प्रिय हैं, वे पिछली अवस्था में भी दीक्षित हो जाने पर तथा संयम-मार्ग में न्यायपूर्वक चलने से शीघ्र ही देवलोक में चले जाते हैं। टीका- इस गाथा के कथन करने का यह भाव प्रतीत होता है कि यदि कोई ऐसे कहे कि-अब तो मेरी वृद्धावस्था आ गई है। इसलिए मैं अब संयम के योग्य नहीं रहा हूँ। इस प्रकार से कहने वालों के प्रति सूत्रकार का यह उपदेश है कि- यदि तप, संयम तथा क्षमा और ब्रह्मचर्य से प्रेम है तो वृद्धावस्था में भी संयम धारण कर लेने पर बहुत ही शीघ्र देवलोक के विमानों की प्राप्ति हो जाती है, जिससे फिर वह आत्मा दुर्गति के दुःखों को भोगने से छूट जाती है। अतएव जीव को तप और संयम तथा क्षमा और ब्रह्मचर्य से प्रेम प्रत्येक अवस्था में होना चाहिए। जो आत्मा उक्त वृत्ति को धारण करती है, वह अवश्यमेव सुखों को अनुभव करने वाली हो जाती है। उत्थानिका-अब सूत्रकार इस अध्ययन का उपसंहार करते हुए कहते हैं:इच्चेयं छज्जीवणियं, सम्मट्ठिी सया जए। दुल्ल हलहित्तु सामण्णं, कम्मुणा न विराहिज्जासि॥२९॥ त्ति बेमि। चउत्थं छज्जीवणिया अज्झयणं सम्मत्तं। इत्येतां षड्जीवनिकाम् , सम्यग्दृष्टिः सदा यतः। दुर्लभं लब्ध्वा श्रामण्यम् , कर्मणा न विराधयेत्॥२९॥ इति ब्रवीमि। . चतुर्थं षड्जीवनिकाऽध्ययनं समाप्तम्। ___ पदार्थान्वयः-सया-सदा जए-यत्न करने वाला सम्मट्ठिी -सम्यग्द्दष्टि जीव दुल्लहंदुर्लभ सामण्णं-मुनित्व को लहित्तु-प्राप्त करके इच्चेयं-इस प्रकार छज्जीवणियं-षट्काय की 96] दशवैकालिकसूत्रम् [चतुर्थाध्ययनम्