________________ टीका-जो स्वाद और इन्द्रिय-सुख की लालसा रखता है, उसके लिए आकुलित रहता है, सोने का प्रेमी है, हाथ, पैर और मुँह आदि अवयवों को धोने में यत्नायत्न का भी जो विवेक नहीं रखता है, वह द्रव्यलिङ्गी साधु है; भावलिङ्गी नहीं। इस प्रकार के द्रव्य-साधु को मोक्ष-गति का प्राप्त होना दुर्लभ है, क्योंकि जो श्री भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन करने वाला है, वह उक्त सुगति को प्राप्त नहीं कर सकता। कारण यह कि ज्ञान और क्रिया द्वारा जीव को मोक्षरूपी सुगति की प्राप्ति हो सकती है। जब किसी साधु ने सूत्रोक्त क्रियाओं का परित्याग कर दिया हो और वह केवल शारीरिक सुख में ही निमग्न हो गया हो, तो भला फिर वह सुगति किस प्रकार प्राप्त कर सकता है ? भोजन, शयन, हस्त-पादप्रक्षालन आदि क्रियाएँ तो यथावसर सभी मुनियों को करनी पड़ती हैं, लेकिन एक तो शारीरिक सुख के लिए क्रियाएँ की जाती हैं और एक शरीर के निर्वाह के लिए। इस स्थान पर शारीरिक सुख की इच्छा से उक्त क्रियाओं को करने वाले साधु को सुगति का अनधिकारी कहा गया है। उत्थानिका- तो अब सुगति किसको प्राप्त हो सकती है? सो कहते हैं:तवोगुणपहाणस्स , उज्जुमइ खंतिसंजमरयस्स। परीसहे जिणंतस्स, सुलहा सुगई तारिसगस्स // 27 // तपोगुणप्रधानस्य , ऋजुमतेः क्षान्तिसंयमरतस्य। परीषहान् जयतः, सुलभा सुगतिस्तादृशकस्य॥॥२७॥ . पदार्थान्वयः-तवोगुणपहाणस्स-तपरूपी गुण से प्रधान उज्जुमइ-जिसकी मोक्षमार्ग में मति है खंतिसंजमरयस्स-क्षमा और संयम में रत परीसहे-परिषहों के जिणंतस्सजीतने वाले तारिसगस्स-ऐसे की सुगई-सुगति-मोक्ष सुलहा-सुलभ है। मूलार्थ-जो तप-गुण में प्रधान हैं, मोक्ष-मार्ग में जिनकी बुद्धि प्रवृत्त हो रही है, क्षमा और संयम के पालने में जो तत्पर हैं और जो परिषहों के जीतने वाले हैं, ऐसे मुनि को मोक्षरूपी सुगति प्राप्त होमा सुलभ है। टीका-'उज्जुमइ'-'ऋजुमतेः' के दो अर्थ हैं-एक 'मोक्ष में बुद्धि रखने वाले' और दूसरा 'सरलाशय वाले' यहाँ पर दोनों ही अर्थ ग्रहण किए जा सकते हैं। खंतिसंजमरयस्स''क्षान्तिसंयमरतस्य' के भी दो अर्थ हैं-एक 'क्षमा और संयम में रत' और दूसरा 'क्षमाप्रधान संयम में रत', क्योंकि क्षमा संयम का मूल है। ये दोनों ही अर्थ यहाँ पर ग्रहण किए जा सकते हैं। मोक्षरूपी सुगति आत्मिक गुणों के के आश्रित / अतः शारीरिक सख को छोडकर संगति की प्राप्ति के लिए उक्त गुणों का आश्रय अवश्य लेना चाहिए तथा सूत्रकर्ता ने उक्त गुणों का जो वर्णन किया है, उसमें तप और संयम शब्दों द्वारा चारित्र का निर्देश कर दिया है। यद्यपि चारित्र में ज्ञान ही कारण हैं, लेकिन मोक्ष-प्राप्ति का साक्षात्कारण चारित्र है। इसलिए सूत्रकर्ता ने सुगति का मुख्य कारण चारित्र ही प्रतिपादन किया है। अतएव इसी क्रम से प्रत्येक व्यक्ति को ज्ञानपूर्वक चारित्र से मोक्ष प्राप्त करना चाहिए। . उत्थानिका-सूत्रकार अब इस विषय में कहते हैं कि यदि किसी जीव को मोक्ष प्राप्त न हो सके तो फिर क्या हो: चतुर्थाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [95