SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उसका पुनः प्रादुर्भाव नहीं होता। जैसे कि प्रध्वंसाभाव। प्रध्वंसाभाव सादि और अनन्त है, उसका प्रादुर्भाव नहीं होता। अतः उक्त न्यायशास्त्र के नियमानुसार सिद्ध भगवान् पुनर्जन्ममरण के संकट कभी नहीं उठाते / इसलिए शास्त्रकार ने उनके लिए 'शाश्वत' विशेषण प्रदान किया है। ___ यहाँ यदि यह शङ्का की जाए कि सिद्ध भगवान् जब लोक के अग्रभाग तक पहुँच गए, तब फिर अलोक में भी क्यों न चले गए? वहीं क्यों स्थिर हो गए। इसका समाधान यह है कि मिट्टी-लगा पानी में डूबा हुआ तूंबा मिट्टी के हट जाने पर-निर्लेप हो जाने पर-जिस तरह ऊपर आकर ठहर जाता है और स्थल पर या आकाश में, अधर में वह नहीं पहुँचता, क्योंकि उसकी गति जल के आश्रित है, ठीक उसी प्रकार सिद्ध जीवों की गति 'धर्मास्तिकाय' के आश्रित है? जहाँ धर्मास्तिकाय था, वहाँ तक वे पहुँचे। अलोकाकाश में धर्मास्तिकाय नहीं था, इसलिए वे आगे गमन न कर सके और वहीं पर स्थिर हो गए। यहाँ यदि यह शङ्का की जाए कि सिद्ध भगवान् अनन्त-शक्तिशाली, अचिन्त्यप्रभावी और पूर्ण-वीर्यवान हैं / इतने पर भी क्या वे धर्मास्तिकाय के अधीन ही बने रहे, जो कि उसके अभाव में आगे गमन न कर सके? इसका समाधान यह है कि अवश्य ही वे अनन्तशक्तिशाली 1. अचिन्त्य-प्रभावी और पर्ण-वीर्यवान हैं. लेकिन वस्त-स्वरूप को अन्यथा कोई भी नहीं कर सकता। वस्त के स्वभाव को पलटने की सामर्थ्य किसी में नहीं है। वस्तु का स्वभाव वास्तव में पलटता नहीं है। यदि वस्तु-स्वभाव पलट जाया करे तो सर्वसाधेर्य हो जाए। सर्व वस्तु एकमेक हो जाएँ। भिन्न-भिन्न पदार्थों की व्यवस्था-सत्ता-जी सर्व मतावलम्बियों को स्वीकृत है, वह न रहे। सिद्ध भगवान् को जो अनन्त शक्ति प्राप्त हुई है, वह अपने स्वरूप में है। पर पदार्थों को अपने रूप परिणमाने में नहीं है। इसलिए धर्मास्तिकाय के अभाव से अलोकाकाश में न जाकर सिद्ध भगवान् लोक के ही अग्रभाग में विराजमान होते हैं। उत्थानिका- पूर्वोक्त धर्म-फल जिसको दुर्लभ है, शास्त्रकार अब उसका वर्णन करते हैं:सुहसायगस्स समणस्स , सायाउलगस्स निगामसाइस्स।.. उच्छोलणापहोअस्स , दुलहा सुगई तारिंसगस्स॥२६॥ सुखस्वादकस्य श्रमणस्य, साताकुलस्य निकामशायिनः। उत्सोलनाप्रधाविनः , दुर्लभा सुगतिस्तादृशस्य॥२६॥ पदार्थान्वयः- सुहसायगस्स-सुख के स्वाद को चाहने वाले साया-उलगस्ससाता के लिए आकुल निगामसाइस्स-अत्यन्त शयन करने वाले उच्छोलणा पहोअस्स-बिना यत्न के हाथ-पैर आदि अवयवों को धोने वाले तारिसगस्स-ऐसे समणस्स-साधु को सुगईउत्तम गति दुलहा-दुर्लभ है। मूलार्थ-सुख के स्वाद को चाहने वाले, आगामी काल की साता के लिए चित्त में अत्यन्त व्याकुलता धारण करने वाले, सूत्रोक्त विधि को छोड़कर शयन करने वाले एवं बिना यत्न के हाथ-पैर आदि अवयवों को धोने वाले मुनि को मोक्ष-गति का प्राप्त होना दुर्लभ है। दशवकालिकसूत्रम् [चतुर्थाध्ययनम् 94]
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy