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________________ भाँति निश्चल हो जाता है, उस समय वह भवोपग्रही कर्मों का क्षय करके कर्मरज से रहित होता हुआ सिद्ध-गति को प्राप्त हो जाता है। टीका-कषायों का अभाव तो मुनि के पहले ही- बारहवें गुणस्थान में हो गया। कषायों के और ज्ञानावरण आदि चार घातिया कर्मों के नष्ट हो जाने से तो उन्हें केवल-ज्ञान ही प्राप्त हुआ है। अब जैन मुनि को योगों का भी अभाव करना पड़ता है। तभी उनके पूर्वसंचित कर्म नष्ट हो सकते हैं और तभी उन्हें सिद्धि अर्थात् सिद्ध-गति की प्राप्ति हो सकती है। इससे यह बात सिद्ध हो गई कि अजीवसम्बन्धजन्य ईर्यापथिक और साम्परायिक क्रिया से सर्वथा रहित होने पर ही जीव को सिद्ध-गति प्राप्त होती है, क्योंकि जीव से क्रिया कराने वाली दो ही चीजें हैं। एक मन-वचन-कायरूप योग और दूसरी क्रोध-मान-माया-लोभरूप कषाय। जब देवाधिदेव श्री जिनेन्द्र भगवान् ने इन दोनों कारणों का अभाव कर दिया तो क्रिया कैसे हो सकती है? कारण के नष्ट हो जाने पर कार्य की उत्पत्ति किसी भी तरह सिद्ध नहीं होती। यह बात सर्वसम्मत है और इसी लिए सिद्धावस्था में भी जीव अक्रिय ही रहता है, बल्कि यों कहना चाहिए कि सर्वथा अक्रिय दशा का नाम ही 'सिद्धि' या 'मोक्ष' है। इससे जो लोग ‘क्रियावान् रहते हुए भी मोक्ष हो जाता है' या 'सिद्ध जीव क्रिया करते हैं यह मानते हैं, उनके निषेध करने का शास्त्रकार का आशय है। उत्थानिका-कर्मों का नाश कर सिद्ध-गति को प्राप्त कर लेने पर निष्कर्म जीव को फिर क्या फल प्राप्त होता है ? सो कहते हैं:जया कम्मं खवित्ताणं, सिद्धिं गच्छइ नीरओ। तया लोगमत्थयत्थो, सिद्धो हवइ सासओ॥२५॥ यदा कर्म क्षपयित्वा, सिद्धिं गच्छति नीरजाः। तदा लोकमस्तकस्थः सिद्धो भवति शाश्वतः॥२५॥ पदार्थान्वयः-जया कम्मं खवित्ताणं नीरओ सिद्धिं गच्छइ-जिस समय कर्मक्षय करके और नीरज होकर सिद्ध-गति को जाता है तया-उस समय लोग मत्थयत्थो-लोक के मस्तक पर स्थित होता हुआ सासओ-शाश्वत पद वाला सिद्धो-सिद्ध हवइ-हो जाता है। मूलार्थ- जिस समय जीव, कर्म-क्षयकर-कर्म-रज से रहित होकरसिद्ध-गति को प्राप्त करता है, उस समय वह लोक के मस्तक पर जाकर विराजता है और शाश्वतरूप से सिद्ध हो जाता है। टीका- यहाँ पर सिद्ध को 'शाश्वत' का विशेषण दिया है। उसका अभिप्राय यह है कि कुछ लोग सिद्धावस्था से जीव को लौटता हुआ मानते हैं, यह ठीक नहीं है। जब संसार-परिभ्रमण के कारणीभूत कर्म आत्मा से सर्वथा अलग हो गए, तब उस शुद्ध-बुद्धमुक्त-निर्लेप-निष्कलङ्क-अलिप्त परमेश्वर को संसार में फिर से लाने वाला पदार्थ कौन है? कोई नहीं। बीज की सत्ता रहने पर ही अंकुर के प्रादुर्भूत होने की आशङ्का रहती है। बीज नष्ट हो जाने पर अंकर का प्रादर्भाव कोई नहीं कर सकता। वैसा हो ही नहीं सकता। अतः उन खण्डनार्थ यहाँ सिद्ध के लिए 'शाश्वत' विशेषण शास्त्रकार ने दिया है। दूसरी बात एक और है और वह यह है कि न्यायशास्त्र का यह नियम है कि जो पदार्थ सादि-अनन्त होता है, चतुर्थाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [93
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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