________________ यदा लोकमलोकं च, जिनो जानाति केवली। .. तदा योगानिरुद्ध्य, शैलेशी प्रतिपद्यते॥२३॥ पदार्थान्वयः- जया लोगमलोगं च केवली जिणो जाणइ-जिस समय लोक और अलोक को केवल-ज्ञानी जिन जान लेता है तया-उस समय जोगे-योगों को निलंभित्तानिरोध कर सेलेसिं-पर्वतराज को-निश्चयभाव को पडिवजइ-प्राप्त होता है। मूलार्थ-जिस समय केवल-ज्ञानी जिन, लोक और अलोक को जान लेते हैं, उस समय वे मन, वचन और काय रुप योगों का निरोधकर पर्वत की तरह स्थिर परिणाम वाले बन जाते हैं। टीका-मन, वचन और काय के द्वारा आत्मा के प्रदेशों का जो परिस्पन्दन होता है, उसे 'योग' कहते हैं / यह योग जब शुभ कार्य में प्रवृत्त होता है, तब वह शुभ कर्मों का आस्रव करता है और जब वह अशुभ कार्य में प्रवृत्त होता है, तब वह अशुभ कर्म का आस्रव करता है, लेकिन केवली जिन ऐसा नहीं करते, वे योगों का निरोध करते हैं। निरोध वे इस लिए करते हैं कि चार अघातिया-वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र रूप जो कर्म नष्ट करने से अभी तक बाकी बचे हुए हैं, उनको भी नष्ट कर दें। योगों से जब कर्मों का आस्रव होता है, तब उसके निरोध से कर्मों का अभाव होना स्वाभाविक है। वे 'भवोपग्राहि-कर्मांशक्षयाय' अर्थात् अनेक भवों का संचित जो कर्मांश है. उसके क्षय करने के लिए योग का निरोध करते हैं। योगों की चपलता ही आकुलता है, आकुलता ही वास्तव में दुःख है। दुःख को कोई जीव पसंद नहीं करता। सब सुख के अभिलाषी हैं। दुःख दूर निराकुलता से होता है। निराकुलता योगनिरोध से होती है। निराकुलता ही वास्तव में पूर्ण सुख है। संसार-परिभ्रमण से अकुताए हुए और अनन्तकालीन स्थायीस्वरूप अपनी आत्मिक संपत्ति को चाहने वालों को धर्म और शुक्ल ध्यान तथा व्युत्सर्ग तप आदि द्वारा अपने शुभाशुभ कर्मों के क्षय करने का पुरूषार्थ करना चाहिए। उत्थानिका-योग-निरोधजन्य स्थिरता प्राप्त हो जाने पर केवली जिन को फिर क्या फल प्राप्त होता है ? सो कहते हैं:जया जोगे निरूभित्ता, सेलेसिं. पडिवज्जइ। तया कम्मं खवित्ताणं, सिद्धिं गच्छइ नीरओ॥२४॥ यदा योगान्निरुद्धय, शैलेशी प्रतिपद्यते। तदा कर्म क्षपयित्वा, सिद्धिं गच्छति नीरजाः॥२४॥ पदार्थान्वयः- जया जोगे निरूभित्ता सेलेसिं पडिवजइ-जिस समय योगों को निरोधकर पर्वतराजवत् स्थिर हो जाता है तया-उस समय नीरओ-रज-रहित होकर कम्म-कर्म को खवित्ताणं-क्षय करके सिद्धि-सिद्ध-गति को गच्छइ चला जाता है। मूलार्थ- जिस समय केवली जिन, योगों का निरोधकर सुमेरू पर्वत की दशवैकालिकसूत्रम् [चतुर्थाध्ययनम् 92]