________________ हो जाने पर जीव को फिर क्या फल प्राप्त होता है ? सो कहते हैं:जया सव्वत्तगं नाणं, दंसणं चाभिगच्छइ। तया लोगमलोगं च जिणो जाणइ केवली॥२२॥ यदा सर्वत्रगं ज्ञानम् , दर्शनं चाभिगच्छति। तदा लोकमलोकं च, जिनो जानाति केवली॥२२॥ पदार्थान्वयः-जया सव्वत्तगं नाणं च दंसणं अभिगच्छइ-जिस समय सर्वव्यापी ज्ञान और दर्शन को प्राप्त हो जाता है तया-उस समय जिणो-राग-द्वेष को जीतने वाला जिन केवली-केवल-ज्ञान का धारी लोगं-लोक च-और अलोगं-अलोक को जाणइ-जान लेता है। मूलार्थ-जिस समय जीव, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो जाता है, उस समय रागद्वेष को जीतने वाला वह केवली, लोक और अलोक को जान लेता है। .. टीका-आत्मा का वह केवलं-ज्ञान तीनों लोकों की बातों को इस तरह जानता है जैसे हाथ पर रक्खे हुए आँवले को हम और आप जानते हैं। केवली जिन 'लोकालोक' को जानते हैं, यह बात इस गाथा में कही गई है। इस लिए 'लोकालोक' का संक्षिप्त स्वरूप यहाँ कह देना उचित है-'लोक' असंख्यात योजन आयाम और विष्कम्भ वाला प्रतिपादन किया गया है अर्थात् लोक चतुर्दशरज्वात्मकप्रमाण माना जाता है अर्थात् स्वर्गलोक, मध्यलोक और पाताललोक, इस प्रकार तीनों लोक चतुदर्शरज्जुप्रमाण सिद्ध होते हैं। . यहाँ यदि यह शङ्का की जाए कि-रज्जु किसे कहते हैं? तो इसका समाधान यह है कि-मान लीजिए कि यदि सौधर्म देवलोक से हजार मन के लोहे का गोला नीचे गिराया जाए, तो वह गोला षट्-मास, षट्-दिन और षट्-मुहूर्त में मध्य-लोक की भूमि पर आकर गिरेगा। इतने काल में यावन्मात्र क्षेत्र उस गोले ने अतिक्रम किया है, वह क्षेत्र एक रज्जुप्रमाण होता है। इसी प्रकार ऊर्ध्वरज्जु, तिर्यग्रज्जु और अधोरज्जु का प्रमाण किया जाता है। जैसे किमध्य (मृत्यु) लोक की भूमि से सौधर्म देवलोक एक रज्जुप्रमाण है। द्वितीय रज्जु माहेन्द्रनामक चतुर्थ देवलोक तक है। तृतीय रज्जु छठे देवलोक तक है। चतुर्थ रज्जू आठवें देवलोक तक है। पञ्चम रज्जु बारहवें देवलोक तक है। छठा रज्जु इक्कीसवें देवलोक तक है। सातवाँ रज्जु सिद्धशिला पर्यन्त है। इस प्रकार ऊर्ध्वलोक सात रज्जुप्रमाण कहा जाता है। इसी प्रकार अधोलोक भी सात रज्जुप्रमाण है, क्योंकि नरक सात ही हैं। प्रत्येक नरक एक रज्जुप्रमाण कथन किया गया है। तिर्यग्लोक एक रज्जूप्रमाण कथन किया गया है। जैसे कि-जम्बूद्वीपस्थ मेरू से लेकर स्वयंभूरमण समुद्र की सीमा पर्यन्त एक रज्जूप्रमाण तिर्यग्लोक का क्षेत्र वर्णन किया गया है। अतः केवली भगवान् लोकालोक को हस्तामलकवत् अपने ज्ञान में देखते हैं। . उत्थानिका-लोकालोक को जान लेने के बाद केवली जिन फिर क्या करते हैं? सो कहते हैं:जया लोगमलोगं च, जिणो जाणइ केवली। तया जोगे निलंभित्ता, सेलेसिं पडिवज्जइ॥२३॥ चतुर्थाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [91