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________________ से किए हुए कम्मरयं-कर्मरज को धुणइ-झाड़ देता है- दूर कर देता है। मूलार्थ-जिस समय जीव, सब से श्रेष्ठ और उत्कृष्ट संवररूप धर्म का स्पर्श करता है, उस समय वह मिथ्यादृष्टि-भाव से लगे हुए कर्मरज को आत्मा से झाड़ देता है-पृथक् कर देता है। टीका-कर्मरज आत्मा को रंगता है, सो जब संवररूपी पवित्र जल से आत्मा का स्पर्श हुआ, तब वह कर्मरज स्वयमेव आत्मा से पृथक् हो जाता है। गाथा में जो 'धुणइ''धुनोति' क्रियापद दिया है उससे इस स्थान पर 'धातूनामने-कार्थत्वात्' अर्थात् धातु अनेकार्थ होने से 'पातयति' क्रिया का अर्थ ग्रहण करना चाहिए तथा जो 'कम्मरयं'-'कर्मरजः' कहा गया है, उसमें 'कर्मैव आत्मरञ्जनाद्रज इव रजः' अर्थात् आत्मा को रञ्जायमान करने से कर्म ही रज कहलाते हैं। उत्थानिका-मिथ्यादर्शनजन्य कर्मरज को दूर कर देने के बाद जीव को क्या फल प्राप्त होता है? सो कहते हैं:जया धुणइ कम्मरयं, अबोहिकलुसं कडं। तया सव्वत्तगं नाणं, दंसणं चाभिगच्छइ॥२१॥ यदा धुनोति कर्मरजः, अबोधिकलुषं कृतम्। तदा सर्वत्रगं ज्ञानम् , दर्शनं चाभिगच्छति॥२१॥ . पदार्थान्वयः-जया अबोहिकलुसं कडं कम्मरयं धुणइ-जिस समय मिथ्यादृष्टिभाव से संचय किया हुआ कर्मरज आत्मा से पृथक कर देता है तया-इस समय सव्वत्तगं-सर्व लोक में व्याप्त होने वाले नाणं-ज्ञान च-और दंसणं-दर्शन को अभिगच्छइ-प्राप्त करता है। मूलार्थ-जिस समय जीव, मिथ्यादृष्टि-भाव से संचित किए हुए कर्मरज को आत्मा से पृथक् कर देता है, उस समय वह लोकालोक के प्रकाश करने वाले केवलज्ञान और केवल-दर्शन को प्राप्त करता है। टीका-जिस समय जीव किसी कारणवश आकुल हो जाता है, उस समय उसकी बुद्धि ठिकाने नहीं रहती। स्मरणशक्ति निर्बल पड़ जाती है और हेयोपदेय का विशेष ज्ञान उसे नहीं रहता। निराकुलता में मनुष्य का दिमाग सही रहता है। स्मरणशक्ति अपना काम यथावत करती है और कर्त्तव्याकर्त्तव्य का ज्ञान उस समय जीव को विशेषरूप से रहता है। यह बात अनुभवसिद्ध है। इस अनुभव से यह बात भलीभाँति जानी जा सकती है कि ज्ञान आत्मा में हमेशा मौजूद रहता है। आकुलता आदि कारणों से वह सिर्फ ढंक जाता है। ज्यों ही वे कारण दूर हुए नहीं कि वह ज्ञान आत्मा में ज्यों का त्यों प्रकट हो जाता है। ठीक इसी भाँति यहाँ यह बात कही गई है कि मिथ्यादर्शन आदि कारणों से जो कर्म-रज आत्मा से लग गया था, संवर के द्वारा वह ज्यों ही हटा नहीं कि त्यों ही झट केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन जो कि आत्मा में स्वभाव से ही सदा से मौजूद रहते हैं, प्रकट हो जाते हैं; बादलों के हट जाने से जैसे देदीप्यमान सूर्य प्रकट हो जाता है। उत्थानिका—सर्वत्र व्यापकस्वरूप केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन के प्राप्त 90] .. दशवैकालिकसूत्रम् [चतुर्थाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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