________________ बाह्याभ्यन्तर संयोग बना रहता है, तब तक वह मोक्ष-पद की साक्षात्साधिका साधु-वृत्ति ग्रहण नहीं करता। वह उसका विरोधक है और ज्यों ही जीव उन संयोगों से रहित हुआ नहीं, कि त्यों ही वह उस साधु-वृत्ति को धारण कर लेता है। उत्थानिका-मुण्डित होकर और अनगार-वृत्ति को प्राप्त कर जीव फिर क्या करता है? सो कहते हैं? जया मुंडे भवित्ताणं, पव्वइए अणगारियं। तया संवरमुक्किटुं, धम्मं फासे अणुत्तरं // 19 // यदा मुण्डो भूत्वा, प्रव्रजत्यनगारताम् / तदा संवरमुत्कृष्टम् , धर्मं . स्पृशत्यनुत्तरम्॥१९॥ पदार्थान्वयः- जया मुंडे भवित्ताणं अणगारियं पव्वइए-जिस समय मुण्डित होकर अनगार-भाव को प्राप्त हो जाता है तया-उस समय उक्विटुं संवरं-उत्कृष्ट संवर के अणुत्तरंसब से श्रेष्ठ धम्म-धर्म का फासे-स्पर्श करता है। मूलार्थ जिस समय जीव, मुण्डित होकर साधु-वृत्ति को ग्रहण कर लेता है, उस समय वह उत्कृष्ट संयम और अनुपम धर्म का स्पर्श करता है। टीका-गाथा के उत्तरार्द्ध में आए हुए 'उक्किटुं' को 'संवरं' का और 'अणुत्तरं' को 'धम्म' का विशेषण मानकर ऊपर अर्थ किया गया है, लेकिन 'उक्किटुं' और 'अणुत्तर' इन दोनों पदो को 'संवरं' का विशेषण करके उसे फिर 'धम्म' का विशेषण भी किया जा सकता है। उस समय उत्तरार्द्ध का अर्थ होगा-'सब से श्रेष्ठ और उत्कृष्ट संवररूप धर्म का जीव उस समय स्पर्श करता है'। होने को तो गृहस्थावस्था में भी संवर हो सकता है, लेकिन वास्तव में उत्कृष्टरूप से वह साधु-अवस्था में ही होता है। उस अवस्था में कर्मों के आगमन का द्वार भलीभाँति रुक जाता है और उसी का नाम 'संवर' है, संवर धर्म है। जीव को जो उत्कृष्ट स्थान में रक्खे उसका नाम धर्म है / वह धर्म गृहस्थावस्था में भी धारण किया जा सकता है। लेकिन एकदेश रुप ही- अणुव्रतस्वरुप ही- धारण किया जा सकता है। महाव्रतरूप- पूर्णरूप सेधर्म तो वास्तव में साधु-अवस्था में ही धारण किया जाता है। . उत्थानिका-उत्कृष्ट संवर और अनुपम धर्म को पाकर साधु फिर क्या करता है? सो कहते हैं:जया संवरमुक्किटुं, धम्मं फासे अणुत्तरं। तया धुणइ कम्मरयं, अबोहिकलुसं कडं॥२०॥ यदा . संवरमुत्कृष्टम् , धर्मं स्पृशत्यनुत्तरम्। तदा धुनोति कर्मरजः, अबोधिकलुषं कृतम्॥२०॥ पदार्थान्वयः- जया संवरमुक्किट्ठे अणुत्तरं धम्मं फासे-जिस समय सब से श्रेष्ठ उत्कृष्ट संवररूप धर्म का स्पर्श करता है तया-उस समय अबोहिकलुसं-कडं-मिथ्यादृष्टि-भाव चतुर्थाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [89