________________ वह उन भोगों को दुःखप्रद समझने लग जाती है। उत्थानिका- दिव्य और मानवीय भोगों से विरक्त हो जाने के अनन्तर जीव क्या करता है ? सो कहते हैं : जया निव्विंदए भोए , जे दिव्वे जे य माणुसे। तया चयइ. संजोगं , सब्भिंतरबाहिरं // 17 // यदा निर्विन्ते भोगान् , यान् दिव्यान् याँश्च मानुषान्। तदा त्यजति संयोगम् , साभ्यन्तरबाह्यम् / // 17 // __ पदार्थान्वयः- जया जे दिव्वे जे य माणुसे भोए निव्विंदए-जिस समय दिव्य और मानवीय भोगों से विरक्त हो जाता है तया-उस समय सब्भिंतरबाहिरं-आभ्यन्तर और बाहर के सजोगं-संयोग को चयइ-छोड़ देता है। ___ मूलार्थ- जिस समय जीव, दिव्य और मानवीय भोगों से विरक्त हो जाता है, उस समय वह आन्तरिक और बाह्य संयोग का परित्याग कर देता है। टीका- यहाँ पर अन्तरङ्ग संयोग- क्रोध, मान ,माया, लोभ और बाह्य संयोगमाता-पिता आदि का सम्बन्ध ग्रहण करना चाहिए। ये संयोग ही वास्तव में जीव को बन्धन में डाले हुए हैं और उसके लिए अनेक दुःखों के कारण बने हुए हैं। हाँ, यहाँ पर इस बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि संयोग दो तरह के होते हैं- : एक प्रशस्त और दूसरा अप्रशस्त। इनमें से अप्रशस्त संयोगों को छोड़कर जीव को प्रशस्त संयोग ग्रहण करना चाहिए। उत्थानिका- बाह्याभ्यन्तर संयोगों को त्याग देने के बाद जीवं फिर क्या करता है? सो कहते हैं: जया चयइ संजोगं, सब्भिंतरबाहिरं / तया मुंडे भवित्ताणं, पव्वइए अणगारियं // 18 // यदा त्यजति संयोगम्, साभ्यन्तरबाह्यम्। तदा मुण्डो भूत्वा, प्रव्रजत्यनगारताम्॥१८॥ पदार्थान्वयः- जया सब्भिंतरबाहिरं संजोगं चयइ-जिस समय बाह्य और अन्तरङ्ग संयोग को छोड़ देता है तया-उस समय मुंडे भवित्ताणं-मुण्डित होकर अणगारियं-अनगारवृत्ति को पव्वइए-ग्रहण करता है। मूलार्थ- जिस समय जीव, बाह्य और अन्तरङ्ग संयोग को छोड़ देता है, उस समय वह द्रव्य और भाव से मुण्डित होकर अनगार-वृत्ति को प्राप्त करता है। __टीका- मुण्डन दो प्रकार का होता है- एक द्रव्य-मुण्डन और दूसरा भावमुण्डन। केश-लुञ्चनादि द्रव्य-मुण्डन है और इन्द्रिय-निग्रहादि भाव-मुण्डन है। अंगार' अर्थात् घर, 'अनगार' अर्थात् घर-रहित अवस्था अर्थात् साधु-वृत्ति / जब तक जीव को 88] दशवैकालिकसूत्रम् [चतुर्थाध्ययनम्