________________ मूलार्थ-जिस समय जीव, सब जीवों की बहु भेद वाली गति को जान लेता है, उस समय वह पुण्य और पाप तथा बन्ध और मोक्ष के स्वरूप को भी जान लेता है। टीका-जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष,पुण्य और पाप, जैनशासन में ये नव तत्त्व हैं। इनमें से जीव और अजीव ये दो मूल तत्त्व हैं। शेष सात तत्त्व इन दोनों की संयोग-वियोग रूप अवस्था, उसके तारतम्य तथा कारण की अपेक्षा से निष्पन्न होते हैं। तथा च-जिस प्रकार लोह-पिण्ड में अग्नि प्रविष्ट हो जाती है; अथवा गर्म लोह-पिण्ड में, यदि वह जल में पटक दिया जाए तो जिस प्रकार उसके अन्दर पानी समा जाता है; अथवा जिस प्रकार दूध में पानी एकमेक हो जाता है; अथवा जिस प्रकार गर्म नुकती को चासनी में डाल देने पर उसके अन्दर चासनी प्रविष्ट हो जाती है, उसी प्रकार कषाय-सहित हो जाने पर आत्मा में कर्म प्रविष्ट हो जाते है / यही 'बन्ध-तत्त्व' कहलाता है। कर्म जिस मार्ग-कारण-से आत्मा में आते हैं, उस कर्मागम-द्वार को शास्त्र में 'आस्त्रव-तत्त्व' कहा गया है। जब जीव अपने मन-वचन-काय के निरोध से कर्मों के आगमन को रोकने लगता है, तब वही 'संवरतत्त्व' कहलाता है। जितने समय के लिए कर्म आत्मा से बँधते हैं, उतने समय के बीत जाने पर जब वे कर्म आत्मा से अलग होने लगते हैं, कर्मों की उस अवस्था को 'निर्जरा-तत्त्व' कहते हैं। संवर और निर्जरा होते-होते आत्मा जब बिल्कुल अलिप्त-नीरजस्क-परिशुद्ध हो जाती है, आत्मा का वह अवस्थाविशेष 'मोक्ष-तत्त्व' कहलाता है। . उत्थानिका-पुण्य और पाप तथा बन्ध और मोक्ष को जान लेने से जीव को फिर क्या फल प्राप्त होता है? सो कहते हैं:जया पुण्णं च पावं च, बंधं मुक्खं च जाणइ। तया निव्विंदए भोए , जे दिव्वे जे य माणुसे // 16 // यदा पुण्यं च पापं च, बंधं मोक्षं च जानाति। तया निर्विन्ते भोगान् , यान् दिव्यान् याँश्च मानुषान्॥१६॥ पदार्थान्वयः- जया पुण्णं च पावं च बंधं मुक्खं च जाणइ-जिस समय पुण्य और पाप तथा बन्ध और मोक्ष को जान लेता है तया-उस समय जे-जो दिव्वे-देवों के जे य-और जो माणुसे-मनुष्यों के भोए-भोग हैं, उनको निव्विंदए-जान लेता है-उनसे विरक्त हो जाता है। मूलार्थ-जिस समय जीव, पुण्य और पाप को तथा बन्ध और मोक्ष को जान लेता है, उस समय वह देव और मनुष्यों के भोगने योग्य भोगों को जान लेता है अर्थात् उनसे विरक्त हो जाता है। ... टीका-इस गाथा में ज्ञान का सार चारित्र बतलाया गया है। जैसे कि-जिस समय आत्मा पुण्य और पाप तथा बन्ध और मोक्ष, इनके स्वरूप को जान लेती है, तब वह देवों के जो काम-भोग हैं या जो मनुष्यों के काम-भोग हैं, उनसे विरक्त हो जाती है। कारण कि फिर वह आत्मा ज्ञान द्वारा उन भोगों को पाप-कर्म के बन्ध करने वाले मानने लग जाती है और फिर उनसे वह छट जाने की बद्धि करती है। जैसे कि- कोई सम्यक विचार वाला व्यक्ति मृत्यु के लिए विष-भक्षण नहीं करता तथा बालू आदि असार पदार्थों का संग्रह नहीं करता, ठीक उसी प्रकार ज्ञानी आत्मा विषय-विकारों से अपने को पृथक् कर लेती है, क्योंकि फिर चतुर्थाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [87