________________ किया गया तब आत्मा निरास्त्रवी होकर मोक्ष-पद की प्राप्ति कर लेती है, परन्तु स्मृति रहे कि यावत्काल पर्यन्त जीव, जीवाजीव के स्वरूप को सम्यक्तया जान नहीं लेता, तावत्काल पर्यन्त सर्वथा आस्रव का निरोध भी नहीं किया जा सकता। अतएव ज्ञानाभ्यास अवश्यमेव करना चाहिए, जिससे फिर क्रम से निर्वाण-पद प्राप्त किया जा सके। उत्थानिका-ज्ञान का माहात्म्य बतलाकर शास्त्रकार अब ज्ञान से उत्पन्न होने वाली फल परम्परा का वर्णन करते हैं१:जया जीवमजीवे अ, दोऽवि एए वियाणइ। तया गई बहु विहं, सव्वजीवाण जाणइ॥१४॥ यदा जीवानजीवाँश्च , द्वावप्येतौ विजानाति। तदा गतिं बहुविधाम् , सर्वजीवानां जानाति॥१४॥ ___ पदार्थान्वयः- जया-जिस समय जीवमजीवे अ-जीव और अजीव एए-इन दोऽवि-दोनो को वियाणइ-जान लेता है तया-उस समय सव्वजीवाण-सब जीवों की बहुविहंबहु भेद वाली गई-गति को जाणइ-जान लेता है। मूलार्थ-जिस समय जीव, जीव और अजीव इन दोनों को जान लेता है, उस समय वह सब जीवों की बहु भेद वाली गति को भी जान लेता है। टीका-यहाँ यह शङ्का की जा सकती है कि नारक, तिर्यञ्च, मानुष और देव -ये चार ही गतियाँ शास्त्रों में वर्णन की गई हैं। तो यहाँ पर 'गई बहुविहं' अर्थात् 'बहुत प्रकार की गतियाँ' ऐसा क्यों कहा? इसका समाधान यह है कि वास्तव में मूल मतियाँ तो चार ही हैं, लेकिन तिर्यग्गति में रहने वाले पाँच स्थावरों के उत्पत्ति-स्थान असंख्यात हैं तथा इनकी उत्पत्ति असंख्यात लोक में होती है। इस अपेक्षा से इस जगह गति को बहु भेद वाली लिखा है अर्थात् उत्तर-भेदों के सम्मिलित कर लेने पर गतियाँ असंख्यात मानी जा सकती हैं। उत्थानिका-जीवाजीव के स्वरूप को जान लेने का.फल गतियों को जान लेना है। तो फिर गति जान लेने का क्या फल है ? वह शास्त्रकार कहते हैं:जया गई बहुविहं, सव्वजीवाण जाणइ। तया पुण्णं च पावं च, बंधं मुक्खं च जाणइ॥१५॥ यदा गतिं बहुविधाम् , सर्वजीवानां जानाति। तदा पुण्यं च पापं च, बन्धं मोक्षं च जानाति॥१५॥ ___पदार्थान्वयः-जया सव्वजीवाण बहुविहं गई जाणइ-जिस समय सर्व जीवों की बहु भेद वाली गति को जान लेता है तया-उस समय पुण्णं च पावं च-पुण्य और पाप को तथा बंधं च मुक्खं च-बन्ध और मोक्ष को भी जाणइ-जान लेता है। १टीका में यहाँ तक के वर्णन को 'पञ्चम उपदेशाधिकार' और यहाँ से आगे के वर्णन को छठा' धर्मफलाधिकार' लिखा है। 86] दशवैकालिकसूत्रम्-. [चतुर्थाध्ययनम्