________________ जो जीवे वि न याणेइ अजीवे वि न याणइ। जीवाजीवे अयाणंतो, कहं सो नाहीइ संजमं? // 12 // यो जीवानपिं न जानाति, अजीवानपि न जानाति। जीवाजीवानजानन् , कथमसौ ज्ञास्यति संयमम्॥१२॥ पदार्थान्वयः- जो-जो जीवे वि-जीवों को भी नयाणेइ-नहीं जानता और अजीवे वि। अजीवों को भी नयाणइ-नहीं जानता जीवाजीव-जीव और अजीवको अयाणंतो-न जानता हुआ सो-वह संजमं-संयम को कहं-किस प्रकार नाहीइ-जानेगा? मूलार्थ- जो जीव,न तो जीव-पदार्थ को जानता है और न अजीव पदार्थको और जीवाजीव को भी नहीं जानता, वह संयमको किस प्रकारजानसकेगा? टीका- यहाँ यदि यह कहा जाए कि उक्त गाथा के प्रथम चरण में 'जीव' का ग्रहण है और दूसरे चरण में ''अजीव' का ग्रहण है, इस तरह जब दोनों का ग्रहण हो ही गया तो फिर तीसरे चरण में 'जीवाजीव' क्यों ग्रहण किया है ? इसका समाधान यह है कि पहले चरण के 'जीवे' पद से यहाँ पर केवल शुद्ध जीव अर्थात् मोक्षात्मा का ग्रहण करना चाहिए और दूसरे चरण के "अजीवे' पद से धर्मास्तिकायादि का ग्रहण करना चाहिए। ये दोनों शब्द शुद्ध जीव और शुद्ध अजीव के बोधक हैं, जो कि परद्रव्य से सर्वथा अलिप्त हैं। तीसरे चरण के 'जीवाजीवे' पद से संसारी जीव का, जो कि पुद्गल-द्रव्य की वर्गणाओं से लिप्त-मिश्रितहो रहा है, ग्रहण करना चाहिए। . उत्थानिका- तब फिर संयम को कौन जान सकता है? इसका उत्तर शास्त्रकार आगे की गाथा में दे रहे हैं:जो जीवे विवियाणेइ,अजीवेविवियाणइ। जीवाजीवे वियाणंतो, सो हु नाहीइ संजमं॥१३॥ यो जीवानपि विजानाति, अजीवानपि विजानाति। जीवाजीवान् विजानन् , स हि ज्ञास्यति संयमम्॥१३॥ . पदार्थान्वयः- जो-जो जीवे वि-जीव को भी वियाणेइ-जानता है अजीवे विअजीव को भी वियाणइ-जानता है जीवाजीवे-जीव और अजीव को वियाणंतो-जानता हुआ सो-वह संजमं-संयम को हु-निश्चय से नाहीइ-जानेगा। .. मूलार्थ- जो जीव के, अजीव के और जीवाजीव के स्वरूप को जानता है, वही जीव वास्तव में संयम के स्वरूप को जान सकेगा? टीका- 'संयम' शब्द का अर्थ आस्रव का निरोध है, अत: जब आस्रव का निरोध 1 'जीवशब्देन सिद्धा उक्ताः, अजीवशब्देन धर्मास्तिकायादयः पञ्चोक्ताः; जीवाजीव-शब्देन संसारवासिनः सर्वे चतुरशीतिलक्षयोनिस्था उक्ताः।'- नवतत्त्वप्रकरणम्। चतुर्थाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [85