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________________ चरण में जो 'चिट्ठइ' पद है, वह 'ष्ठा गतिनिवृत्तौ' से बना है और वह वर्तमान काल के प्रथम पुरुष का एकवचन है। उसका अर्थ वास्तव में ठहरता है, ठहरा है, ठहरा हुआ है' यही होता है और जब 'समस्त संयत-वर्ग इसी सिद्धान्त पर ठहरा हुआ है' यह अर्थ हुआ तो उसका तात्पर्य यही तो हुआ कि 'इस प्रकार सब संयत-वर्ग मानता है', इसी लिए मूलार्थ में वैसा लिखा गया है। गाथा के 'सेयपावगं' की जगह 'छेयपावगं' पाठ भी कहीं-कहीं मिलता है। 'छेय'-'छेक' शब्द के तीन अर्थ हैं- 'छेकं निपुणं हितं कालोचितम्'-निपुण, हित और समयोचित। प्रकरणानुसार यहाँ पर उसका 'हित' अर्थ ग्रहण करना चाहिए। उत्थानिका- सूत्रकार फिर भी उसी विषय को दृढ़ करते हैं:सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं। उभयं पि जाणइ सोच्चा, जं सेयं तं समायरे॥११॥ . श्रुत्वा जानाति कल्याणम् , श्रुत्वा जानाति पापकम्। . उभयमपि जानाति श्रुत्वा, यत् श्रेयस्तत् समाचरेत्॥११॥ पदार्थान्वयः- सोच्चा-सुनकर ही कल्लाणं-कल्याण को जाणइ-जानता है सोच्चासुनकर ही पावगं-पाप को जाणइ-जानता है सोच्चा-सुनकर ही उभयं पि-दोनों को जाणइजानता है जं-जो सेयं-हितकारी हो तं-उसे समायरे-ग्रहण करे। मूलार्थ- मनुष्य सिद्धान्त को सुनकर ही कल्याणकारी कर्म को जानता है, सुनकर ही पापकारी कर्म को जानता है, सुनकर ही पुण्य-पाप को पहचानता है और तभी उसमें जो आत्मा का हितकारी मार्ग है, उसे वह ग्रहण करता है।। _____टीका- इस गाथा में इस बात का प्रकाश किया गया है कि श्रुत-ज्ञान ही परमोपकारी है, क्योंकि सुनकर ही जीव मोक्ष के स्वरूप को जानता है और सुनकर ही जीव पाप (संसार) के स्वरूप को जानता है तथा संयमासंयमरूप श्रावक-धर्म को भी जीव सुनकर ही जानता है। फिर जो उसको हितकारी प्रतीत होता है, उसे वह ग्रहण कर लेता, है। तात्पर्य यह है कि श्रुतधर्म सर्वोत्कृष्ट है। अतएव श्रवण करना प्रत्येक व्यक्ति का मुख्य कर्त्तव्य होना चाहिए। इस गाथा से यह भी ध्वनि निकलती है कि जो पढ़ नहीं सकता, उसे शास्त्र-श्रवण अवश्य करना चाहिए'। गाथा के चतुर्थ चरण से धर्मादि क्रियाओं में जीव की स्वतन्त्रता सिद्ध की गई है। इसी लिए शास्त्रकार ने यह कथन किया है कि जो उसे योग्य हो, उसी का वह समाचरण करे। 'कल्याण' अर्थात् दया? से संयम-वृत्ति, 'पाप' से असंयम-वृत्ति, उभय से संयमासंयम-रूप श्रावक-वृत्ति, इस तरह इन तीनों वृत्तियों का यहाँ निर्देश किया गया है। इनमें से अपनी शक्ति के अनुसार साधु अथवा श्रावक वृत्ति जिसको जो उपादेय प्रतीत हो, उसे वह ग्रहण करे। उत्थानिका- शास्त्रकार फिर उसी विषय में कहते हैं: 1 'कल्याण' शब्द से दया का ग्रहण इसलिए किया गया है कि- दया-कल्याण-मोक्ष को पहुँचाती है तथा चाहान्यत्र- 'कल्याणम्'-कल्यो मोक्षस्तमणति प्रापयतीति कल्याणं दयाख्यसंयमस्वरूपम्। 84] दशवैकालिकसूत्रम् [चतुर्थाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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