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________________ भी उतना ही हानिकर है। पाप लोहे की बेड़ियाँ हैं तो पुण्य स्वर्ण की बेड़ियाँ हैं / बेड़ियाँ दोनों हैं। शुद्ध आत्मा की दृष्टि से - शुद्ध निश्चयनय से - अबद्ध आत्मा की अपेक्षा पाप तो पाप है ही, पुण्य भी पाप ही है, क्योंकि आत्मा को सिवाय अपने स्वरूप के और सब हेय है / यहाँ पर हेय' अर्थ में ही 'पाप' शब्द आया हुआ है। पाप-कर्म' में 'पाप' शब्द को 'कर्म' का विशेषण नहीं समझना चाहिए, बल्कि यहाँ पर वे दोनों एक अर्थ के ही बोधक हैं और उनका समास 'पाप एवं कर्म इति पाप-कर्म' करना चाहिए अथवा उपलक्षण से यहाँ पर पाप के साथ पुण्य को भी ग्रहण कर लेना चाहिए। जैसा कि 'वीतराग' शब्द में 'राग' शब्द से 'द्वेष' भी ग्रहण कर लिया जाता है। अतः सिद्ध हुआ कि उक्त गाथा का चौथा चरण मोक्ष-प्राप्ति का वर्णन करने वाला है। इस तरह से उक्त गाथा में त्रयात्मक मोक्ष-पद का प्रतिपादन किया गया है। आत्मा को उसे प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए। उत्थानिका-प्रायः लोग शङ्का किया करते हैं कि दया ही केवल पाप-कर्म के बन्ध को रोक देती है। तब दया ही करना चाहिए। ज्ञानाभ्यास के झंझट में जीव को क्यों पड़ना चाहिए? इसके लिए शास्त्रकार कहते हैं:पढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजए। अन्नाणी किं काही?, किंवा नाही सेयपावगं ? // 10 // प्रथमं ज्ञानं ततो दया, एवं तिष्ठति सर्वसंयतः। अज्ञानी किं करिष्यति ?, किं वा ज्ञास्यति श्रेयःपापकम् ? // 10 // पदार्थान्वयः- पढम-प्रथम नाणं-ज्ञान तओ-तब दया-दया है एवं-इस प्रकारज्ञानपूर्वक दया करने से सव्वसंजए-सब संयत चिट्ठइ-ठहरा हुआ है अन्नाणी-अज्ञानी किं काही-क्या करेगा? किं वा-और क्या सेयपावगं-पुण्य और पाप को नाही-जानेगा? - मूलार्थ-पहले ज्ञान है, पीछे दया है। इसी प्रकार से सब संयत-वर्ग स्थित है अर्थात् मानता है। अज्ञानी क्या करेगा? तथा पुण्य और पाप के मार्ग को वह क्या जानेगा? ''टीका- इस गाथा में ज्ञान का माहात्म्य दिखलाया गया है और क्रिया को अन्धरूप कहा गया है। ठीक भी है, क्योंकि जीव जब जीवाजीव के स्वरूप को जानेगा ही नहीं तो फिर दया करेगा किसके ऊपर ? अज्ञानी जीव जब साध्य के उपाय को जानेगा ही नहीं तो फिर उसको सिद्ध किस प्रकार कर सकेगा? नहीं कर सकेगा। वह सर्वत्र अन्ध-तुल्य होने से प्रवृत्ति और निवृत्ति रूप मार्ग में तत्पर ही नहीं हो सकता / अजानी जीव न मोक्ष के मार्ग को जान सकता है. न पाप के मार्ग को। जब वह जिन बातों से अनभिज्ञता रखता है तो भला फिर उनमें वह प्रवृत्ति या निवृत्ति किस प्रकार से कर सकेगा? अतएव वह 'अन्धप्रदीप्त-पलायनघुणाक्षरकरणवत्' कुछ भी नहीं कर सकता। अतः सिद्ध हुआ कि ज्ञान का अभ्यास अवश्यमेव करना चाहिए। तभी सम्यक्-चारित्र हो सकता है। ज्ञान स्व और पर का प्रकाशक है। क्रिया-दयारूप क्रिया-कर्मों के नष्ट करने में समर्थ है। अतः यह सिद्ध हुआ कि ज्ञानपूर्वक की गई क्रिया ही मोक्ष का साधक है और वही क्रिया चारित्र कहलाती है, क्योंकि सम्यक्-ज्ञान सम्यक्-चारित्र का कारण बतलाया गया है। गाथा के दूसरे चतुर्थाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [83
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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