________________ उत्थानिका- अब शास्त्रकार पूर्वोक्त विषय को ही दृढ़ करते हैं:सव्व भूयप्पभूयस्स , सम्मं भूयाइं पासओ। पिहियासवस्स दंतस्स, पावकम्मं न बंधइ॥९॥ सर्वभूतात्मभूतस्य , सम्यक् भूतानि पश्यतः। पिहितास्त्रवस्य दान्तस्य, पापकर्म न बधाति॥९॥ पदार्थान्वयः- सव्वभूयप्पभूयस्स-सब जीवों को अपने समान जानने वाले को सम्मं भूयाई पासओ-सम्यक् प्रकार से सब जीवों को देखने वाले को पिहियासवस्स-सब प्रकार से आस्रवों का निरोध करने वाले को और दंतस्स-पाँचों इन्द्रियों के दमन करने वाले को पावकम्मं-पाप-कर्म न बंधइ-नहीं बाँधता। मूलार्थः-जो जगत् के जीवों को अपने समान समझता हो, जो जगत् के जीवों को समभाव से देखता हो, कर्मों के आने के मार्ग को जिसने रोक दिया हो और जो इन्द्रियों का दमन करने वाला हो, ऐसे साधु को पाप-कर्म का बन्ध नहीं होता। टीका-जो मुनि अपनी आत्मा के समान अनन्तशक्तिशाली, दुःखभीरू और सुखाभिलाषी संपूर्ण जीवों की आत्मा को समझता है; जो मुनि जीवों के स्वरूप को उसी प्रकार देखता है जिस प्रकार कि श्री सर्वज्ञ भगवान् ने कहा है; जिस मुनि ने पाँचों इन्द्रियों और मन को अपने वश में कर लिया है और जिस मुनि ने क्रोध , मान, माया और लोभ रूप. कषायों को एवं प्राणातिपातादिरुप आस्रव को शुभ भावनाओं द्वारा रोक दिया है, उसे पापकर्मों का बन्ध नहीं होता। अतः उसको मोक्ष प्राप्त कर लेना स्वाभाविक है। यहाँ पर यह शङ्का की जा सकती है कि मोक्ष तो सम्यक्-ज्ञान, सम्यक्-दर्शन और सम्यक्-चारित्र, इन तीनों की एकता से मिलता है। जैसा कि शास्त्रों में वर्णन है कि 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' तो फिर उपरोक्त से -केवल चारित्र से -मोक्ष कैसे मिल सकता है? इसका समाधान यह है कि-ठीक है, सम्यक्-ज्ञान, सम्यक् -दर्शन और सम्यक्-चारित्र से ही मोक्ष प्राप्त होता हैं। उपरोक्त गाथा में भी तो इन्हीं तीनों का वर्णन है। देखिए 'सव्वभूयप्पभूयस्स' 'सर्वभूतात्मभूतस्य' पद से सम्यक्-ज्ञान का, 'सम्मं भूयाई पासओ'-'सम्यग्भूतानि पश्यतः' पद से सम्यक्-दर्शन का और 'पिहियासवस्स दंतस्स''पिहितात्रवस्य दान्तस्य' पद से सम्यक्-चारित्र का यहाँ पर निरुपण किया गया है। शास्त्रकार ने जिस प्रकार उपरोक्त गाथा के तीन चरणों से तीनों उपायों को बतलाया है, उसी प्रकार चौथे चरण से उक्त तीनों उपायों का फल जो मोक्ष -प्राप्ति है, उसका भी वर्णन कर दिया है। यथा 'पावकम्मं न बंधइ'-'पापकर्म न बध्नाति'। यहाँ पर यह शङ्का की जा सकती है कि चौथे चरण में तो यह बतलाया है कि उसके केवल पाप-कर्म का बन्ध नहीं होता, लेकिन इससे पुण्य-कर्म के बन्ध का निषेध नहीं होता। जब तक आत्मा के पुण्य-कर्म का बन्ध होता है तब तक उसे मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती, स्वर्गादि की प्राप्ति भले ही हो जाए। इसलिए गाथा के चौथे चरण में मोक्ष की प्राप्ति का वर्णन कहाँ हुआ? इसका समाधान यह है कि शुद्ध-आत्मा के लिए पाप जितना हानिकर है, पुण्य 82] दशवैकालिकसूत्रम् [चतुर्थाध्ययनम्