________________ कर्ता अध्याहृत किया जा सकता है। तदनुसार उनका कर्ता 'जीव' मानकर ऊपर गाथाओं का अर्थ लिखा गया है। यद्यपि प्रकरण साधु का है, इसलिए 'साधु' पद ही यहाँ अध्याहृत होना चाहिए। लेकिन उपदेश का पात्र-अधिकारी-जीवमात्र होता है। इसलिए यहाँ पर 'जीव' ही उक्त क्रियाओं का कर्ता मानकर उक्त गाथाओं का अर्थ किया गया है। उत्थानिका- अब सूत्रकार उक्त प्रश्नों के उत्तर देते हैं:जयं चरे जयं चिढ़े, जयमासे जयं सए। जयं भुंजंतो भासंतो, पावकम्मं न बंधइ॥८॥ यतं चरेत् यतं तिष्ठेत् , यतमासीत यतं शयीत। यतं भुञ्जानो भाषमाणः, पापकर्म न बध्नाति॥८॥ __ पदार्थान्वयः-जयं-यत्नपूर्वक चरे-चले जयं-यत्नपूर्वक चिढ़े-खड़ा हो जयं-यत्नपूर्वक आसे-बैठे जयं-यत्नपूर्वक सए-सोए जयं-यत्नपूर्वक भुंजंतो-भोजन करता हुआ भासंतोभाषण करता हुआ पावकम्मं-पाप-कर्म को न बंधइ-नहीं बाँधता है। ___मूलार्थ-जीव यत्नपूर्वक चले, यत्नपूर्वक खड़ा हो, यत्नपूर्वक बैठे, यत्नपूर्वक सोए, यत्नपूर्वक भोजन करे और यत्नपूर्वक भाषण करे तो वह पाप-कर्म को नहीं बाँधता है। टीका- पूर्व गाथाओं में शिष्य ने जिस प्रकार से प्रश्न किए हैं, शास्त्रकार ने इन गाथाओं में उसी क्रम से उनका उत्तर दिया है। उनका आशय यह है: प्रश्न -हे भगवन्! चलना किस प्रकार चाहिए ? उत्तर-हे शिष्य ! सूत्रोक्त विधि से-ईर्यासमिति से यत्नपूर्वक-चलना चाहिए। प्रश्न-हे भगवन ! खड़ा किस प्रकार होना चाहिए ? उत्तर- हे शिष्य ! यत्नपूर्वक-समाहितहस्त-पादादि-अविक्षेपता से साथ खड़ा होना चाहिए। प्रश्न-हे भगवन् ! बैठना किस प्रकार चाहिए ? उत्तर- हे शिष्य ! यत्नपूर्वक नादि से रहित होकर-बैठना चाहिए। प्रश्न- हे भगवन् ! शयन किस प्रकार करना चाहिए ? उत्तर- हे शिष्य! समाधिमान होकर प्रकाम-शय्यादि का परित्याग कर फिर रात्रि की प्रथम पौरुषी में स्वाध्यायादि करके पश्चात् यत्नपूर्वक शयन करना चाहिए। प्रश्न- हे भगवन्! भोजन किस प्रकार करना चाहिए? उत्तर- हे शिष्य ! प्रयोजन के उपस्थित हो जाने पर अप्रणीत आहार यत्नपूर्वक खाना चाहिए, किन्तु प्रतरसिंह भक्षिनादि भोजन बलवृद्धि करने वाला न करना चाहिए। प्रश्र-हे भगवन् ! भाषण किस प्रकार करना चाहिए? उत्तर - हे शिष्य ! साधु भाषा से मृदु और काल प्राप्त जानकर यत्नपूर्वक भाषण करना चाहिए अर्थात् समय को जा जानकर मृदुभाषी बनना चाहिए। प्रश्न- हे भगवन् ! पाप-कर्मों का बन्ध किस प्रकार से प्रवृति करने पर नहीं होता? उत्तर- हे शिष्य ! यत्नपूर्वक क्रियाओं के करने से आत्मा पाप-कर्म का बन्ध नहीं करती। . सारांश यह है कि यत्नपूर्वक यदि क्रियाएँ की जाएँ तो आत्मा पाप-कर्म का बन्ध नहीं करती और अयत्नपूर्वक क्रियाएँ यदि की जाएँ तो पाप-कर्म का बन्ध अवश्यमेव होता है। चतुर्थाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / / [81