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________________ मूलार्थ- अयत्न से बोलता हुआ जीव, प्राणी और भूतों की हिंसा करता है और पाप-कर्म को बाँधता है, जिस कारण से पीछे उसे कटुक फल प्राप्त होता है। टीका-इस गाथा में भाषा विषयक उल्लेख किया गया है। जो साधु गृहस्थ के समान कठिन और आक्रोशयुक्त वचन का प्रयोग करता है, वह पाप-कर्म को अवश्यमेव बाँधता है, जिसका कि परिणाम उसके लिए अवश्यमेव दुःखप्रद होता है। वाणी के बाण से व्यथित हुए प्राणी कभी-कभी अपने पवित्र जीवन से भी हाथ धो बैठते हैं। अतः वचन बोलते समय अवश्य सावधानी रखनी चाहिए ताकि कोई वचन ऐसा न निकल जाए जो पर-पीड़ाकारक हो। असावधानी से बोले गए वचनों से सत्य की रक्षा कर पाना कठिन है तथा वचनसमाधारणा से दर्शन की विशेष शुद्धि होती है, जिससे आत्मा अध्यात्म में प्रविष्ट हो जाती है। अतः वचन का प्रयोग बिना यत्न के कदापि न होना चाहिए। जीवों को जितने कष्ट होते हैं, उनमें अधिकांश कष्ट असावधानी-अयत्न-से बोले गए वचनों के द्वारा होते हैं। उत्थानिका-इस प्रकार गुरु के उपदेश को सुनकर शिष्य ने प्रश्न किया कि जब पाप-कर्म का बन्ध इस प्रकार से होता है तो फिर क्या करना चाहिए और कैसे वर्तना (व्यवहार) चाहिए ताकि पाप-कर्म का बन्ध न हो: कहं चरे कहं चिढ़े, कहमासे कहं सए। कहं भुंजंतो भासंतो, पावकम्मं न बंधइ॥७॥ . कथं चरेत् कथं तिष्ठेत् , कथमासीत कथं शयीत। .. कथं भुञ्जानो भाषमाणः, पापकर्म न. 'बधाति॥७॥ पदार्थान्वयः- कहं-किस प्रकार से चरे-चले कहं-किस प्रकार से चिढ़े-खड़ा हो कहं-किस प्रकार से आसे-बैठे कहं-किस प्रकार से सए-सोए कहं-किस प्रकार से भुंजंतोभोजन करता हुआ और भासंतो-भाषण करता हुआ पावकम्मं-पाप-कर्म को न बंधइ-नहीं बाँधता है। मूलार्थ-हे भगवन् ! जीव किस प्रकार से चले ? किस प्रकार से खड़ा हो ? किस प्रकार से बैठे ? किस प्रकार से सोए ? किस प्रकार से भोजन करे ? किस प्रकार से बोले ? जिससे कि उसे पाप-कर्म का बन्ध न हो। टीका-चलना-फिरना, उठना-बैठना, सोना-जागना, खाना-पीना आदि क्रियाएँ ऐसी हैं कि यदि इन्हें जीव न करे तो मृत्यु को प्राप्त हो जाए और यदि करता है तो कर्म का बन्ध होता है। तो फिर क्या किया जाए ? यह बड़ा विकट प्रश्न है, जिसका उत्तर होना अत्यन्त आवश्यक है। शास्त्रकार इसका उत्तर आगे स्वयं ही करने वाले हैं और एक विधि ऐसी बतलाने वाले हैं, जिससे ये क्रियाएँ भी होती रहें, जीव मौत का ग्रास भी न बने और पाप-कर्म का बन्ध भी उसको न हो। इन उपरोक्त गाथाओं में 'चरे, चिट्ठे' आदि केवल क्रियापद ही दिए गए हैं, उनके कर्ता का वाचक कोई पद नहीं दिया गया है। व्याकरण का एक नियम है कि जिस क्रिया का कर्ता उपलब्ध न हो उसका कर्ता क्रिया के पुरुषवचनानु-रूप ऊपर से अध्याहृत कर लेना चाहिए। इस नियम के अनुसार गाथाओं के अर्थ में यहाँ पर प्रथम पुरुष का एकवचन रुप कोई 80] दशवैकालिकसूत्रम् [चतुर्थाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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