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________________ टीका-सुगम। उत्थानिका-उसी प्रकार भोजनरूप क्रिया के विषय में कहते हैं:अजयं भुंजमाणो उ, पाणभूयाइं हिंसइ। बंधइ पावयं कम्मं, तं से होइ कडुयं फलं // 5 // अयतं भुञ्जानस्तु , प्राणभूतानि हिनस्ति। बधाति पापकं कर्म, तत्तस्य भवति कटुकं फलम्॥५॥ पदार्थान्वयः-अजय-अयत्न से भुंजमाणो-भोजन करता हुआ पाणभूयाई-प्राणीद्वीन्द्रियादि जीवों और भूत-एकेन्द्रिय जीवों की हिंसइ-हिंसा करता है पावयं-ज्ञानावरणादि पाप कम्म-कर्म को बंधइ-बाँधता है तं से-अतएव पीछे उसको कडुयं फलं-कटुक फल होइ-होता - मूलार्थ-अयत्न से आहार-पानी करता हुआ जीव, प्राणी और भूतों की हिंसा करता है और पाप-कर्म को बाँधता है, जिस कारण से पीछे उसे कटुक फल प्राप्त होता - टीका- यों तो पाँचों ही इन्द्रियाँ जीव को अपने-अपने विषय में घसीट ले जाती हैं- वशीभूत करती रहती हैं और इन पाँचों ही इन्द्रियों के वशीभूत हुआ जीव इस भव के तथा पर-भव के अनेक दुःख प्राप्त करता है। इनमें से जिह्वा-इन्द्रिय एक बहुत ही प्रबल इन्द्रिय है। इस इन्द्रिय के वशीभूत हो जाने से जीव बड़ी जल्दी गलती कर बैठता है। इसलिए इसका विषय जो भोजन है, उसमें जीव को बड़ी सावधानी से प्रवृत्ति करनी चाहिए। भोजन करते समय जीव को यह ध्यान रखना चाहिए कि भोजन शुद्ध और प्रमाणपूर्वक हो। भोजन करते समय साधु को केवल उदर-पूर्ति का ध्यान रखना चाहिए, स्वाद का नहीं और भोजन को साधु इस तरह से ग्रहण करे, जिससे कि बाद में जूठा गिराने की आवश्यकता न पड़े। इस तरह से यत्नपूर्वक आहार ग्रहण करने वाला साधु कर्म का बन्ध नहीं करता और किसी प्रकार की शारीरिक बाधा को भी नहीं प्राप्त करता। उत्थानिका-शास्त्रकार अब भाषाविषयक यत्नाचार का उपदेश करते हैं:अजयं भासमाणो उ, पाणभूयाइं हिंसइ। बंधइ पावयं कम्म, तं से होई कडुयं फलं॥६॥ अयतं भाषमाणस्तु , प्राणभूतानि हिनस्ति। .' बनाति पापकं कर्म, तत्तस्य भवति कटुकं फलम्॥६॥ पदार्थान्वयः-अजयं-अयत्न से भासमाणो-बोलता हुआ पाणभूयाई-प्राणीद्वीन्द्रियादि जीवों और भूत-एकेन्द्रिय जीवों की हिंसइ-हिंसा करता है पावयं-ज्ञानावरणादि पाप कम्म-कर्म को बंधइ-बाँधता है तं से-अतएव पीछे उसको कडुयं फलं-कटुक फल होइ-होता है। चतुर्थाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [79
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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