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________________ उपयोगपूर्वक देख-भालकर गमन करने को ईर्या-समिति' कहते हैं। बिना उपयोग के गमन करने से प्राणियों की हिंसा हो जाना सहज संभव है। इसलिए सारांश यह निकला कि ईर्यासमिति को छोड़कर जो जीव गमन करता है, वह द्वीन्द्रियादि जीवों की अथवा उनके प्राणों की हिंसा करता है। जिससे कि उसके ज्ञानावरणादि पाप-कर्मों का बन्ध होता है और फिर उस बन्ध का कटुक फल उसको प्राप्त होता है। गाथा में जो 'पाणभूयाइं पद है, उसके दो अर्थ होते हैं- 1. 'पाण'-'प्राणी'- द्वीन्द्रियादि जीव और 'भूयाई'-स्थावर जीव; 2. 'पाण''प्राण'- इन्द्रिय, बल, आयु आदि प्राण और 'भूयाई' स्थावर जीव। जिस प्रकार इस गाथा में गमन-क्रिया के विषय में उपदेश दिया गया है, उसी प्रकार आगे की गाथाओं में भी ठहरने, बैठने, सोने, खाने और बोलने रूप क्रियाओं के विषय में भी उपदेश दिया गया है- इत्यादि क्रियाओं को अयत्नपूर्वक करने से न केवल पाप-कर्म का बन्ध ही होता है, किन्तु अपने शरीर की कभी-कभी भारी हानि हो जाती है। प्रत्येक क्रिया का यत्न-विवेक-भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है। उसकी योजना यथास्थान स्वयं कर लेनी चाहिए। यदि सब क्रियाएँ विवेकपूर्वक शास्त्रप्रमाणानुसार की जाएँगी तो, न तो किसी प्रकार का बन्ध होगा और न किसी प्रकार की शरीर-सम्बन्धी बाधा ही उपस्थित होगी अर्थात् यत्नपूर्वक क्रिया करने वाले जीव, आत्मविराधना और पर-विराधना, दोनों से बच सकते हैं। गाथा के प्रथम चरण में कतिपय प्रतियों में 'उ' की जगह 'अ' भी पाठ देखा जाता है जो अव्यय है, व्याकरणानुसार उसकी संस्कृत छाया 'च' होती है; वह 'च'-और-अर्थ में और पादपूर्ति में आता है। यहाँ पर यह दोनों अर्थों में घटित हो सकता है। 'उ' की संस्कृत छाया तीन होती है-एक 'उत्' दूसरी'उ' और तीसरी'त'।'उत'-विपरीत. अभाव.: और विशेष अर्थ में:'उ'-उपयोग रखने के अर्थ में और 'त' निश्चय, वितर्क और परन्त अर्थ में आता है। इनमें से यहाँ पर 'परन्त' अर्थ अच्छा घटता है। इसलिए 'उ' की यहाँ पर 'तु' संस्कृत छाया की गई है। गाथा के चतुर्थ चरण में तं' अव्यय है। उसकी संस्कृत छाया 'तत्' होती है। 'तत्' वाक्यालंकार और हेतु-अर्थ में आता है। यहाँ पर उसे हेतु-अर्थ में मानकर ही उसका अर्थ किया गया है। वही अर्थ यहाँ पर सुघटित होता है। गाथा के चतुर्थ चरण में 'तं' के अतिरिक्त एक 'से' अव्यय भी है। अथ के स्थान पर उसका निपात होता है। वह 'अथ' किसी प्रकरण के प्रारम्भ में मंगल-अर्थ में, अनन्तर-अर्थ में; प्रश्र-अर्थ में और अधिकार-अर्थ में आता है। प्रकरणानुसार यहाँ पर 'से' का अर्थ 'अनन्तर' अच्छा घटता है / अथवा 'वेदं तदेतदो ङसाम्भ्यां से सिमौ' इस हैम सूत्र से तद् शब्द को षष्ठी-एकवचन में 'से' आदेश हो जाता है। अतः संस्कृत छाया में 'तस्य' का प्रयोग किया है। - उत्थानिका-अब सूत्रकार गमन-क्रिया के प्रतिकूल स्थिति-क्रिया के विषय में कहते हैं: अजयं चिट्ठमाणो उ, पाणभूयाइं हिंसइ। बंधइ पावयं कम्म, तं से होइ कडुयं फलं॥२॥ अयतं तिष्ठंस्तु, प्राणभूतानि हिनस्ति। बधाति पापकं कर्म, तत्तस्य भवति कटुकं फलम्॥२॥ चतुर्थाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [77
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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