________________ दिया है / उक्त संस्करणों के अतिरिक्त इस ग्रन्थ का एक संस्करण स्वामी रत्नचन्द्र जी-कृत हिन्दी-अर्थ-सहित भी हुआ है। उसमें 'सीसंसि वा' और 'वत्थंसि वा' पदों के बीच में एक 'मूहे मूहपत्तिंसि वा' पद और छपा हुआ मिलता है। जिसका अर्थ होता है 'मुख पर बँधी हुई मुखपत्ति में।' श्री संघ में 'मुँहपत्ति' के 'मुख पर बँधी हुई' के अर्थ पर थोड़ा-सा विवाद है। विवाद मुँहपत्ति की आवश्यकता पर नहीं है, मुँहपत्ति की आवश्यकता तो जीव-रक्षा के उद्देश्य से दोनों को मान्य है। विवाद केवल 'मुख पर बाँधने न बाँधने' के विषय में है। संवेगी साधु मुख पर मुँहपत्ति बाँधते नहीं हैं, हाथ में लिए रहते हैं। केवल बोलते समय उसे मुँह के आगे लगा लेते हैं और स्थानक-वासी साधु उसे हर समय मुँह पर बाँधे ही रहते हैं। शतावधानी पण्डित मुनि श्री रत्नचन्द्र जी स्वामी के बनाए हुए 'जैनागम-शब्द-संग्रह'अर्धमागधी-गुजराती-कोष में लिखा है:-"मुहणंतक-न (मुखानन्तक) मुखनुं वस्त्र-मुहपत्ति; मुहपत्ती-स्त्री० (मुखपत्री) मुहपत्ती, मुखवस्त्रिका मुहपोत्ति-स्त्री. (मुखपोत्ति), मुखे बांधवानुं कपडं महपत्ति, महपोत्तिया-स्त्री० (मखपोत्तिका) मखवस्त्रिका. मखे बांधवानं एक वेंतने चार आंगुलनुं वस्त्र मुहपत्ति।" उक्त कथन से यही सिद्ध होता है कि मुहपत्ति का अर्थ ही यह है कि जो मुख पर बाँधी जाए। मूल-पाठ में 'मूहे मुहपत्तिंसि वा' पाठ यदि न भी होता, जैसा कि कई प्रतियों में नहीं भी मिलता है; तो भी काम चल जाता, क्योंकि 'अन्नयरंसि वा तहप्पगारे उवगरणजाए' पाठ से मुँहपत्ति को ही ग्रहण किया जाता। अस्तु / इस स्थान पर तो केवल इसी बात का प्रकरण है कि त्रस-काय के जीवों की सावधानी पूर्वक रक्षा करनी चाहिए, जिससे प्रथम अहिंसा-व्रत सुखपूर्वक पालन किया जा सके। उत्थानिका-सूत्रकार यत्नाधिकार के पश्चात अब उपदेश देते हैं:अजयं चरमाणो उ, पाणभूयाई हिंसइ। बंधइ पावयं कम्म, तं से होइ कडुयं फलं // 1 // अयतं चरंस्तु, प्राणभूतानि हिनस्ति।। बध्नाति पापकं कर्म, तत्तस्य भवति कटुकं फलम्॥१॥ पदार्थान्वयः-अजयं-अयत्न से चरमाणो-चलता हुआ जीव पाणभूयाइं-प्राणीद्वीन्द्रियादि जीवों और भूत-एकेन्द्रियादि जीवों की हिंसइ-हिंसा करता है पावयं-ज्ञानावरणादि पाप कम्म-कर्म को बंधइ-बाँधता है तं से-जिससे फिर उसको कडुयं फलं-कटुक फल होइहोता है उ-तु-परन्तु, निश्चय आदि। मूलार्थ-अयत्न से चलता हुआ जीव, प्राणि-भूतों की हिंसा करता है और पाप-कर्म को बाँधता है, जिससे फिर उसको कटुक फल प्राप्त होता है। टीका-गमन-क्रिया में अयत्न करने का अर्थ ईर्या समिति से नहीं चलने का है। 1 इसी प्रकार का पाठभेद पहले भी एक जगह आ चुका है। जैसे कि 'आगमोदय-समिति' द्वारा प्रकाशित इसी दशवकालिक सूत्र के तेजस्काय की रक्षा वाले सूत्र में 'न भिंदिजा, न पज्जालिज्जा'ये दो पद नहीं दिए हैं। इस तरह के पाठ भेदों का होना अनुचित है। इधर श्रीसंघ को अपना लक्ष्य अवश्य देना चाहिए। इसके लिए एक 'सूत्रमाला' इस प्रकार की प्रकाशित करनी चाहिए कि जिसमें समस्त प्रतियों के विभिन्न पाठों के संकलन के अतिरिक्त उन प्रतियों के संवतों का भी उसमें उल्लेख हो तथा सूत्र और पदों की संख्या भी निश्चत कर देनी चाहिए, जिससे कि भविष्य में उनमें कोई घटा-बढ़ी न कर सके। 76] दशवैकालिकसूत्रम् [चतुर्थाध्ययनम् 139