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________________ डण्डे पर, चौकी पर, पट्टे पर, शय्या पर, बिछौने पर तथा साधु के इसी प्रकार के किसी और उपकरण पर चढ़ जाए तो उन्हें देख-भाल कर तथा झाड-पोंछकर अलग एकान्त स्थान में पहुँचा दे, उनका घात न करे-पीड़ा न पहुँचाए। टीका-सूत्र का सारांश यह है कि साधु के किसी भी शरीरावयव पर अथवा उसके किसी भी उपकरण पर यदि कोई त्रस-जीव चढ़ आए तो वह उसे भलीभाँति देख-भाल कर तथा पोंछकर किसी ऐसे एकान्त स्थान में रख दे, जहाँ पर उसे किसी भी प्रकार का कष्ट न होने पाए। वह स्थान ऐसा भी न हो जहाँ पर कि और अनेक जीव मौजूद हों और वे उसकी विराधना के कारण बन जाएँ। इसी लिए सूत्र में "एगंतमवणिज्जा'-'एकान्तमपनयेत्' पद दिया है। सूत्र में 'अन्नयरंसि वा तहप्पगारे उवगरणजाए'-'अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे उपकरणजाते' जो पद दिया है, उसका तात्पर्य यह है कि साधु को जिस-जिस काल में धर्मसाधन के लिए जिस उपकरण की आवश्यकता हो, वह उसे निस्पृह- भाव से रख सकता है। जैसे कि-उक्त उपकरणों में पुस्तकों का नामोल्लेख नहीं है, किन्तु आधुनिक समय में साधु, धर्म-साधन की आशा से पुस्तक अपने पास रखते अवश्य हैं। इसी प्रकार अन्य उपकरणों के विषय में भी जानना चाहिए। लेकिन यह याद रखना चाहिए कि उपकरण उसी का नाम है, जिसके द्वारा ज्ञान. दर्शन और चारित्र की पर्णतया आराधना की जा सके। हाँ! इस पर यह शङा अवश्य की जा सकती है यदि उक्त वक्तव्य का यह तात्पर्य निकाला जाए, जैसा कि ऊपर कहा गया है, तो फिर मान लीजिए कि किसी समय किसी साध को धर्म-साधन के लिए द्रव्यादि को पास रखने की आवश्यकता पड़ गई तो क्या वह उसे ग्रहण कर ले? इसका समाधान यह है कि द्रव्यादि का तो साधु पाँचवें महाव्रत में संपूर्णरूप से त्याग कर चुका है। उसे वह ग्रहण कभी भी नहीं कर सकता। जिस प्रकार द्रव्यादि का सर्वथा त्याग सत्रों में प्रतिपादन किया गया है, उसी प्रकार उपकरणों का सर्वथा त्याग कहीं भी नहीं बतलाया गया है। हाँ ! उपकरणों का परिमाण कर लेना अवश्य बतलाया गया है, जो कि युक्तियुक्त है। इस तरह से ज्ञान-साधन के लिए पुस्तकों का रखना साधुओं के लिए सूत्रानुसार सिद्ध है और जिस तरह पुस्तकों का रखना उनके लिए सिद्ध है, उसी प्रकार तत्सम्बन्धी काष्ट आदि के मषीपात्र रखना भी साधु के लिए अयुक्त नहीं है। ... श्री दशवैकालिकसूत्र का एक संस्करण 'आगमोदय-समिति' की ओर से भी प्रकाशित हुआ है। उक्त सूत्र का वह संस्करण 'टीका' और 'दीपिका' सहित प्रकाशित हुआ है। उस संस्करण में 'सीसंसि वा, वत्थंसि वा, पडिग्गहंसि वा, कंबलंसि वा, पायगुच्छगंसि वा' ये पद मूल में तो दिए हैं, लेकिन टीकाकार ने इन पदों की टीका नहीं की है। साथ ही दीपिकाकार ने उन पदों का अर्थ किया है। इससे टीकाकार और दीपिकाकारों में परस्पर पाठविषयक मतभेद प्रतीत होता है। उक्त संस्करण के संशोधक विद्वान् ने इसी आशय से इस पर पादटिप्पणी में एक यह टिप्पणी कि 'नैतानि व्याख्यातानि टीकायां, दीपिकायाँ तु व्याख्यातानि' जोड़कर टीकाकार और दीपिकाकार के मतभेद का स्पष्ट उल्लेख कर दिया है। उक्त संस्करण के अतिरिक्त श्री दशवैकालिकसूत्र का एक संस्करण 'भीमसिंह माणिक' की ओर से भी प्रकाशित हुआ है। उसमें उक्त पद सब दिए हैं और गुजराती भाषा में उन सब का अर्थ भी चतुर्थाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [75
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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