________________ पर, हरितों पर, हरित-प्रतिष्ठित पदार्थों पर, वृक्षादि की छेदन की हुई शाखाओं पर, उन पर रक्खे हुए पदार्थों पर, अण्डादि सचित्त पदार्थों पर, सचित्त-कोल घुणादि से प्रतिष्ठित पदार्थों पर; न चले, न खड़ा हो, न बैठे, न सोए; अन्य को उक्त पदार्थों पर न चलाए, न खड़ा करे, न बैठाए, न सुलाए और जो उक्त क्रियाएँ करते हों उनकी अनुमोदना भी न करे। शेष प्राग्वत्। टीका- यह बात शास्त्र-सम्मत है कि मनुष्य जिस प्रकार के जीव की हिंसा करता है, प्रायः उसको उसी प्रकार का जन्म धारण करके उसी प्रकार से मरना पड़ता है। अतएव वनस्पति-काय आदि की हिंसा अपने से न हो जाए , इस बात की पूरी सावधानी मनुष्य को रखनी चाहिए। इस प्रकार सावधानी से प्रवृत्ति करते हुए मनुष्य जब संपूर्ण जीवों का पूर्ण रक्षक बन जाएगा, तभी उसे निर्वाण-पद की प्राप्ति हो सकेगी। कृत, कारित और अनुमोदन, इन तीनों करणो-कारणों से जीव के कर्म-बन्ध होता है। इसलिए इन तीनों के निरोध करने से ही जीव के आते हुए कर्म रूकेंगे, इसी लिए यहाँ पर तथा पूर्व में अनेक स्थलों पर इन तीनों से ही सावधान रहने का आदेश शास्त्रकार ने दिया है। शेष वर्णन यहाँ पर भी प्राग्वत् ही समझना चाहिए। उत्थानिका- वनस्पति-काय की यत्ना के पश्चात् शास्त्रकार अब त्रस-काय की यत्ना के विषय में वर्णन करते हैं: . से भिक्खूवा भिक्खुणी वा, संजय-विरय-पडिहय. पच्चक्खाय-पावकम्मे; दिआ वा, राओ वा, एगओ वा, परिसागओ वा, सुत्ते वा, जागरमाणे वा; से कीडं वा, पयंगं वा, कुंथु वा, पिपीलयिं वा; हत्थंसि वा, पायंसि वा, बाहुंसि वा, उरुंसि वा, उदरंसि वा, सीसंसि वा, वत्थंसि वा, पडिग्गहंसि वा, कंबलंसि वा, पायपुंछणंसि वा, रयहरणंसि वा, गुच्छगंसि वा, उंडगंसि वा, दंडगंसि वा, पीढगंसि वा, फलगंसिवा, सिजंसि वा, संथारगंसि वा, अन्नयरंसि वा तहप्पगारे उवगरणजाए, तओ संजयामेव पडिलेहिअ पडिलेहिअ, पमज्जिअ, पमजिअ, एगंतमवणिज्जा, नो णं संघाय-मावज्जिज्जा॥६॥ [सूत्र // 19 // ] चतुर्थाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [73