________________ छिन्नेषु वा, छिन्नप्रतिष्ठि तेषु वा, सचित्तेषु वा, सचित्तकोलप्रतिनि:श्रितेषु वा; न गच्छेत्, न तिष्ठेत्, न निषीदेत्, न त्वग्वर्तेत (स्वप्यात्); अन्यं न गमयेत् , न स्थापयेत्, न निषादयेत्, न त्वग्वर्तयेत् (स्वापयेत्); अन्यं गच्छन्तं वा, तिष्ठन्तं वा, निषीदन्तं वा, त्वग्वर्तमानं (स्वपन्तं)वा न समनुजानीयात्; यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन, मनसा, वाचा, कायेन न करोमि, नकारयामि, कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि। तस्य भदन्त ! प्रतिक्रामामि, निन्दामि, गर्हे, आत्मानं व्युत्सृजामि॥५॥[सूत्र // 18 // ] __ पदार्थान्वयः-से-वह भिक्खू वा-साधु अथवा भिक्खुणी वा-साध्वी अथवा जों कि संजय-संयत विरय-विरत पडिहय-प्रतिहत और पच्चक्खाय-पावकम्मे-पाप-कर्म को जिसने छोड़ दिया हो दिआ वा-दिन में अथवा राओ वा-रात्रि में अथवा एगओ वा-अकेले अथवा परिसागओ वा-परिषद् में बैठा हुआ अथवा सुत्ते वा-सोता हुआ अथवा जागरमाणे वा-जागता हुआ अथवा से-यथा बीएसु वा-बीजों पर अथवा बीयपइट्ठसे वा-बीज के ऊपर भक्षण करने योग्य अन्नादि पदार्थ जो रखे हुए हों उन पर अथवा रूढेसु वा-बीज फूटकर जो अंकुरित हुए हों उन पर अथवा रूढपइटेसु वा-रूढ-प्रतिष्ठित पदार्थों पर अथवा जाएसु वा-जो उगकर पत्रादि से युक्त हो गए हों उन पर अथवा जायपइटेसुवा-जात-प्रतिष्ठित पदार्थों पर अथवा / हरिएसुवा-हरित दूर्वादि पर अथवा हरियपइटेसु वा-हरित प्रतिष्ठित पदार्थों पर अथवा छिन्नेसु वा-परशु आदि द्वारा छेदन की हुई वृक्षादि की शाखाओं पर अथवा छिन्नपइटेसु वा-छिन्नप्रतिष्ठित अशनादि पदार्थों पर अथवा सचित्तेसु वा-सचित्त अण्डकादि पर अथवा सचित्तकोलपडिनिस्सिएसु वा-सचित्त घुणादि से प्रतिष्ठित काष्ठादि पर अर्थात् जिन काठों को घुण लगा हुआ हो उन पर न गच्छेज्जा-न चले न चिट्ठज्जा-न खड़ा हो न निसीइज्जा-न बैठे न तअद्विज्जा- न लेटे-न करवट बदले अन्नं -अन्य व्यक्ति को न गच्छाविज्जा-चलाए नहीं न चिट्ठाविज्जा-खड़ा कराए नहीं न निसीयाविजा-बैठाए नहीं न तुअट्टाविजा-शयन कराए नहीं गच्छंतं वा-गमन करते हुए अथवा चिटुंतं वा-खड़े होते हुए अथवा निसीयंतं वा-बैठते हुए, अथवा तुअर्ट्सतं वा-शयन करते हुए अन्नं-अन्य किसी की न समणुजाणिज्जा-अनुमोदना करे नहीं जावज्जीवाए-जीवन पर्यन्त तिविहं-त्रिविध तिविहेणं-त्रिविध से मणेणं-मन से वायाए-वचन से काएणं-काय से न करोमि-मैं नहीं करूँ न कारवेमि-औरों से नहीं कराऊँ करतंपि-करते हुए भी अन्नं-अन्य की न समणुजाणामि-अनुमोदना नहीं करूँ भंते-हे भगवन् ! तस्स-उसका पडिक्कमामि-मैं प्रतिक्रमण करता हूँ निन्दामि-निंदा करता हूँ गरिहामि-गर्हणा करता हूँ और अप्पाणं-आत्मा को वोसिरामि-पृथक् करता हूँ। मूलार्थ-पूर्वोक्त पाँच महाव्रत-युक्त वह भिक्षु अथवा भिक्षुकी, जो कि संयत है, विरत है, प्रतिहत है और पाप-कर्मों का जिसने त्याग कर दिया है। दिन में, रात्रि में, अकेले-दुकेले, सोते-जागते; बीजों पर, बीजों पर रक्खे हुए पदार्थों पर, अंकुरों पर, अंकुरों पर रक्खे हुए पदार्थों पर, पत्रादि-संयुक्त अंकुरों पर , उन पर रक्खे हुए पदार्थों 72] दशवैकालिकसूत्रम् [चतुर्थाध्ययनम्