________________ आज तक किया हो उसका मैं प्रत्याख्यान करता हूँ। आत्मा की साक्षी-पूर्वक उसकी मैं निन्दा करता हूँ। गुरू की साक्षी-पूर्वक उसकी मैं गर्हणा करता हूँ तथा उससे मैं अपने आप को हटाता हूँ। टीका-मानव-जीवन में वायु-काय का प्रतिपल व्यवहार होता है। उठते-बैठते हर हालत में वायु-काय का चक्र चलता रहता है। इसलिए वायु-काय के जीवों की रक्षा के लिए बड़ी सावधानी से वर्तना चाहिए। सूत्र से सिद्ध होता है कि वायु-काय के अधिष्ठाता देवों की यदि यत्नपूर्वक आराधना की जाए तो वे भी सिद्ध किए जा सकते हैं। शेष वर्णन प्राग्वत् समझना चाहिए। __उत्थानिका-शास्त्रकार अब वायु-काय के पश्चात् वनस्पति-काय की यत्ना के विषय में कहते हैं: सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा, संजय-विरय-पडिहयपच्चक्खाय-पावकम्मे; दिआ वा, राओ वा, एगओ वा, परिसागओ वां, सुत्ते वा, जागरमाणे वा; से बीएसु वा, बीयपइटेसु वा, रूढेसु वा, रूढपइढेसु वा, जाएसु वा, जायपइटेसु वा, हरिएसुवा, हरियपइटेसु वा, छिन्नेसु वा, छिन्नपइद्वेसुवा, सचित्तेसुवा, सचित्त-कोलपडिनिस्सिएसु वा; न गच्छेज्जा, न चिट्ठज्जा, न निसीइज्जा, न तुअट्टिजा; अन्नं न गच्छाविज्जा, न चिट्ठाविज्जा, न निसीयाविज्जा, न तुअट्टाविज्जा; अनं गच्छंतं वा, चिटुंतं वा, निसीयंतं वा, तुअर्ट्सतं वा न समणुजाणिज्जा; जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं, वायाए, काएणं; न करेमि, न कारवेमि, करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि। तस्स भंते ! पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि॥५॥[ सूत्र // 18 // ] ... स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा, संयत-विरत-प्रतिहत-प्रत्याख्यातपापकर्मा; दिवा वा, रात्रौ वा, एकको वा, परिषद्गतो वा, सुप्तो वा, जाग्रद्वा; स बीजेषु वा, बीजप्रतिष्ठितेषु वा, रूढेषु वा, रूढप्रतिष्ठितेषु वा, जातेषु वा, जातप्रतिष्ठितेषु वा, हरितेषु वा, हरिप्रततिष्ठितेषु वा, चतुर्थाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [71