________________ गर्हणा करता हूँ और अपनी आत्मा को उस पाप से पृथक करता हूँ। टीका आगम में अग्नि-काय के सब मिलाकर जो सात लाख भेद वर्णन किए गए हैं, उक्त सूत्र में उनका दिग्दर्शनमात्र है। सूत्रोक्त सब अग्नियाँ सचित्त हैं। उनका व्यवहार साधु के लिए वर्जित है। अग्नियों में केवल 'तेजोलेश्या' ही अचित्त है। अग्नि के समान प्रकाश गुण पृथ्वी में भी पाया जाता है, क्योंकि जिस प्रकार विद्युत् प्रकाश करती है, ठीक उसी प्रकार मणि आदि पार्थिव पदार्थ भी प्रकाश करते हैं। इसी लिए शास्त्रकारों ने कहा है कि पृथ्वी प्रकाशकत्व वा अप्रकाशकत्व, दोनों गुणों से युक्त है। ___ उत्थानिका-सूत्रकर्ता अग्नि-काय की यत्ना के पश्चात् अब वायु-काय की यत्ना के विषय में कहते हैं: से भिक्खूवा भिक्खुणी वा, संजय-विरय-पडिहयपच्चक्खाय-पावकम्मे; दिआ वा, राओ वा, एगओ वा, परिसागओ वा, सुत्ते वा, जागरमाणे वा; से सिएण वा, विहुयणेण वा, तालिअंटेण वा, पत्तेण वा, पत्तभंगेण वा, साहाए वा, साहाभंगेण वा, पिहुणेण वा, पिहुणहत्थेण वा, चेलेण वा, चेलकण्णेण वा, हत्थेण वा, मुहेण वा; अप्पण्णो वा कायं, बाहिरं वा वि पुग्गलं, न फुमिज्जा, न वीएज्जा; अन्नं न फुमाविज्जा, न वीयाविज्जा; अन्नं फुमंतं वा, वीअंतं वा न समणु-जाणिज्जा; जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं, वायाए, काएणं; न करेमि, न कारवेमि, करतंपि अन्नं न समणुजाणामि। तस्स भंते ! पडिक्कमामि, निन्दामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि॥४॥ [ सूत्र // 17 // ] .. स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा, संयत-विरत-प्रतिहत-प्रत्याख्यातपापकर्मा; दिवा वा, रात्रौ वा, एकको वा, परिषद्गतो वा, सुप्तो वा, जाग्रद्वा; स सितेन वा, विधवनेन वा, तालवृन्तेन वा, पत्रेण वा, पत्रभङ्गेन वा, शाखया वा, शाखाभङ्गेन वा, पेहुणेन वा, पेहुणहस्तेन वा, चेलेन वा, चेलकर्णेन वा, हस्तेन वा, मुखेन वा; आत्मनो वा चतुर्थाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [69