________________ वाचा, कायेन; न करोमि, न कारयामि, कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि। तस्य भदन्त! प्रतिक्रामामि, निन्दामि, गहें, आत्मानं व्युत्सृजामि // 3 // [सूत्र // 16 // ] पदार्थान्वयः-से-वह भिक्खू वा-साधु अथवा भिक्खुणी वा-साध्वी जो कि संजय-संयत विरय-विरत पडिहय-प्रतिहत और पच्चक्खायपावकम्मे-पापकर्म जिसने छोड़ दिए हैं दिआवा-दिन में अथवा राओवा-रात्रि में अथवा एगओवा-अकेले अथवा परिसागओ वा-परिषद् में स्थित अथवा सुत्ते वा-सोता हुआ अथवा जागरमाणे वा-जागता हुआ से-वह अगणिं वा-अग्नि को अथवा इंगालं वा-ज्वाला-रहित अङ्गारों की अग्नि को अथवा मुम्मुरं वाबकरी आदि के मैगनों की अग्नि को अथवा अच्चिं वा-मूल अग्नि से टूटती हुई ज्वाला को अथवा जालं वा-ज्वाला को अथवा अलायं वा-भट्ठे की अग्नि को अथवा सुद्धागणिं वा-काष्ठादिरहित शुद्ध अग्नि को अथवा उक्कं वा-उल्का को न उंजिज्जा-सिंचन न करे न घट्टिज्जा-संघट्टन न करे न भिंदिज्जा-भेदन न करे न उज्जालिज्जा-पंखादि की थोड़ी-सी भी हवा से प्रज्वलित न करे न पज्जालिज्जा-पंखादि द्वारा विशेष प्रज्वलित न करे न निव्वाविजा-न बुझाए अन्नं-'अन्य के द्वारा न उंजाविज्जा-सिंचन कराए नहीं न घट्टाविज्जा-संघट्टन कराए नहीं न भिंदाविज्जाभेदन कराए नहीं न उजालाविजा-पंखादि द्वारा थोड़ा-सा भी प्रज्वलित कराए नहीं न पज्जालाविज्जा-पवन के द्वारा विशेष प्रज्वलित कराए नहीं न निव्वाविज्जा-बुझवाए नहीं उज्जंतं वा-उत्सिञ्चन करते हुए अथवा घट्टतं वा-संघट्टन करते हुए अथवा भिंदंतं वा-भेदन करते हुए अथवा उज्जालंतं वा-पंखादि द्वारा प्रचण्ड करते हुए अथवा पज्जालंतं वा-पवन से विशेष प्रचण्ड करते हुए अथवा निव्वावंतं वा-बुझाते हुए अन्नं-और की न समणुजाणिज्जा-अनुमोदना करे नहीं जावज्जीवाए-जीवन पर्यन्त तिविहं-त्रिविध तिविहेणं-त्रिविध से मणेणं-मन से वायाए-वचन से काएणं-काय से न करेमि-करूँ नहीं न कारवेमि-कराऊं नहीं और करंतंपि-करते हुए भी अन्नं-अन्य की न समणुजाणामि-अनुमोदना करूँ नहीं भंते-हे भगवन् ! तस्स-उसका पडिक्कमामि-मैं प्रतिक्रमण करता हूँ निंदामि-निंदा करता हूँ गरिहामि-गर्हणा करता हूँ और अप्पाणं-आत्मा को वोसिरामि-पृथक् करता हूँ। __ मूलार्थ- वह पञ्चमहाव्रतधारी भिक्षु अथवा भिक्षुणी , जो कि संयत, विरत और प्रतिहत है तथा जिसने पाप कर्म छोड़ दिए हैं। दिन में, रात्रि में, अकेले-दुकेले, सोते-जागते; अग्नि को, अङ्गारों को, मैंगनों की अग्नि को, टूटी हुई ज्वाला को, ज्वाला को, कुम्भकारादि के भट्ठे की अग्नि को, शुद्धाग्नि को और उल्का को; लकड़ी आदि देकर उत्सिञ्चन न करे, संघट्टन न करे, भेदन न करे, प्रज्वलित न करे, विशेष प्रज्वलित न करे और बुझाए भी नहीं; एवं दूसरे से भी ईंधनादि द्वारा उत्सिञ्चन न कराए,संघटन न कराए, भेदन न कराए, प्रज्वलित न कराए, विशेष प्रज्वलित न कराए और बुझवाए भी नहीं; किन्तु अन्य जो कोई उक्त क्रियाएँ करते हों, तो उनकी अनुमोदना भी न करे;[ शिष्य प्रतिज्ञा करता है कि-] मैं जीवन पर्यन्त तीन करणकृत-कारित-अनुमोदना और तीन योग-मन-वचन-काय से अग्नि का आरम्भ न करूँ, न कराऊँ और न करते हुए की अनुमोदना ही करूँ। हे भगवन् ! मैं उस पॉप से प्रतिक्रमण करता हूँ, आत्म-साक्षीपूर्वक उसकी निन्दा करता हूँ, गुरु-साक्षीपूर्वक 68] दशवैकालिकसूत्रम् [चतुर्थाध्ययनम्