________________ वस्त्रादि उपकरण का उससे स्पर्श न होने दे, उस पर कुछ लिखे नहीं, उसे इधर से उधर करे नहीं आदि। इतना ही नहीं, किन्तु ऐसा दूसरों से कभी कराए भी नहीं और ऐसा करने पर दूसरों की अनुमोदना भी न करे, क्योंकि ऐसा करने पर ही उसका चारित्र-धर्म निर्दोष हो सकता है और जिस स्थान पर अर्थात् मोक्ष-स्थान पर पहुँचने की वह तैयारी कर रहा है, वहाँ वह पहुँच सकता है। ___ यहाँ यह शङ्का की जा सकती है कि सूत्रकार पहले भी पृथ्वीकाय का वर्णन कर आए हैं और यहाँ पर फिर उन्होंने उसका वर्णन किया है। यह दोबारा उसी विषय का वर्णन 'पुनरुक्ति' नाम का एक दोष है। शास्त्र में यह नहीं होना चाहिए। इसका समाधान यह है कि पहले पृथ्वी का जो वर्णन किया गया है, वह उसका सामान्य कथन है और यह सूत्र उसके भेदों का वर्णन करने वाला है। इसलिए उससे यह विशेष है। दोनों वर्णन एक नहीं हैं। पृथ्वी के उत्तर भेद, जो शास्त्रकारों ने सात लाख बतलाए हैं, उन सब का भी इन्हीं में समावेश हो जाता है। इन भेदों का कथन करने से शास्त्रकार का यह अभिप्राय है कि जिन चीजों से मुनि को बचना है, उनका पूरा-पूरा ज्ञान उन्हें हो जाए ताकि अपने क्रियाचरण का पालन करने उन्हें सुगमता हो जाए और कोई बाधा उपस्थित न हो। सूत्र में 'आलिहिज्जा-विलिहिज्जा'-'आलिखेत्-विलिखेत्' पद 'लिख' धातु के हैं, जिसका अर्थ-उकेरना, कुरेदना आदि होता है। उत्थानिका-अब शास्त्रकार पृथ्वीकाय के अनन्तर अप्काय का वर्णन करते हैं से भिक्खू वा भिक्खुणी वा, संजय-विरय-पडिहयपच्चक्खाय-पावकम्मे; दिआ वा, राओ वा, एगओ वा, परिसागओ वा, सुत्ते वा, जागरमाणे वा; से उदगं वा, ओसं वा, हिमं वा, महियं वा, करगं वा, हरतणुगं वा, सुद्धोदगंवा, उदउल्लंवा कायं, उदउल्लंवा वत्थं, ससिणिद्धं वा कायं, ससिणिद्धं वा वत्थं न आमुसिज्जा, न संफुसिज्जा, न आवीलिज्जा, न पवीलिजा, न अक्खोडिज्जा, न पक्खोडिजा, न आयाविज्जा, न पयाविज्जा; अन्नं न आमुसाविज्जा, न संफुसाविज्जा, न आवीलाविजा, न पवीलाविज्जा, न अक्खोडाविज्जा, न पक्खोडाविजा, न आयाविज्जा, न पयाविज्जा; अन्नं आमुसंतं वा, संफुसंतं वा, आवीलंतं वा, पवीलंतं वा, अक्खोडंतं वा, पक्खोडंतं वा, आयावंतं वा, पयावंतं वा न समणुजाणिज्जा; 64] दशवकालिकसूत्रम् [चतुर्थाध्ययनम्