________________ लेखें वा-शिलापुत्र को अथवा ससरक्खं वा कायं-सचित्त रज से भरे हुए शरीर को अथवा ससरक्खं वा वत्थं-सचित्त रज से भरे हुए वस्त्र को हत्थेण वा-हाथ से अथवा पाएण वा-पगों से अथवा कटेण वा-काष्ठ से अथवा किलिंचेण वा-काठ के खंड से अथवा अंगुलियाए वाअंगुलि से अथवा सिलागाए वा-लोहे की शलाका से अथवा सिलागहत्थेण वा-शलाका के समुदाय से न आलिहिज्जा-सचित्त पृथ्वी पर लिखे नहीं न विलिहिज्जा-विशेष लिखे नहीं न घट्टिज्जा-स्पर्श करे नहीं न भिंदिज्जा-सचित्त पृथ्वी को भेदन करे नहीं अन्नं-औरों से न आलिहाविज्जा-सचित्त पृथ्वी पर न लिखवाए न विलिहाविज्जा-विशेष न लिखाए नघट्टाविज्जासचित्त पृथ्वी अन्य से स्पर्श न करवाए न भिंदाविज्जा-औरों से भेदन न करवाए अन्नं-औरों को आलिहंतं वा-आलेखन करते हुए को अथवा विलिहंतं वा-विशेष आलेखन करते हुए को, अथवा घट्टतं वा-स्पर्श करते हुए को, अथवा भिंदंतं वा-भेदन करते हुए को अथवा न समणुजाणिज्जा-अनुमोदन न करे जावजीवाए-जीवन पर्यन्त तिविहं-त्रिविध तिविहेणंत्रिविध से मणेणं-मन से वायाए-वचन से काएणं-काय से न करेमि-न करूँन कारवेमिन कराऊँ करंतंपि-करते हुए भी अन्नं-औरों को न समणुजाणामि-भला न समझू भंते-हे भगवन् ! तस्स-उसकी पडिक्कमामि-मैं प्रतिक्रमण करता हूँ निंदामि-निंदा करता हूँ गरिहामिगर्हणा करता हूँ और अप्पाणं-आत्मा को वोसिरामि-हटाता हूँ। मूलार्थ-वे भिक्षु अथवा भिक्षुणी, जो कि संयत हैं, विरत हैं, प्रतिहत हैं और पापकर्मों का प्रत्याख्यान कर चुके हैं; दिन-रात में, अकेले-दुकेले, सोते-जागते;पृथ्वी को, भीत को, शिला को, पत्थर को, सरजस्क शरीर को, सरजस्क वस्त्र को हाथ से, पाँव से, लकड़ी से, लकड़ी के टुकड़े से, अंगुली से, सलाई से,सलाई की नोक से; न थोड़ा लिखें, न बहुत लिखे, न छूए, न छेदे; न औरों से थोड़ा लिखवाएँ, न औरों से बहुत लिखवाएँ, न छुवाए, न छिदवाएन औरों के थोड़ा लिखने पर, न औरों के बहुत लिखने पर, न औरों के छूने पर, न औरों के छेद करने पर अनुमोदना करें; हे भगवन्! मैं जीवन पर्यन्त तीन करण-कृत-कारित-अनुमोदना से और त्रिविध-मन-वचनकाय से न करूँ, न कराऊँ, और न करते हुए की अनुमोदना ही करूँ। हे भगवन् ! मैं उस पाप का प्रतिक्रमण करता हूँ, आत्म-साक्षीपूर्वक निन्दा करता हूँ, गुरू-साक्षीपूर्वक गर्हणा करता हूँ और उस पाप से अपनी आत्मा को हटाता हूँ। ___टीका-पाँच महाव्रत और छठे रात्रि-भोजन-त्याग व्रत का वर्णन करने के बाद अब चारित्र-धर्म का विशेष वर्णन करना सूत्रकार को इष्ट है। लेकिन जब तक षट्काय के जीवों की यत्नपूर्वक रक्षा न की जाएगी, तब तक चारित्र-धर्म को निर्दोष-पूर्वक पालन नहीं किया जा सकता। अत एव सूत्रकार ने षट्काय जीवों की रक्षा का प्रकार बतलाने के लिए आगे छः सूत्र कहे हैं। उनमें से पृथ्वी-काय की रक्षा का यह पहला सूत्र है, साधु और साध्वी सकल परिग्रह का तो त्याग ही कर चुके हैं। केवल काय की पालना करने के लिए वे भिक्षणशील-भिक्षु हैं सूत्र में जो विशेषण भिक्षु के लिए हैं वे ही भिक्षुणी के लिए भी हैं। लेकिन वे सब हैं पुँल्लिङ्ग; "भिक्खू' का पूर्व निपात है, इससे पुरूष की प्रधानता सिद्ध होती है / तप-कर्म में रत, कर्मों की दीर्घ स्थिति को जिसने हस्व अर्थात् कम कर लिया हो, कर्मों को बाँधने वाले एवं बढ़ाने वाले कारणों का अभाव कर जिसने पापकर्म का प्रत्याख्यान कर लिया हो, इत्यादि विशेषणों से युक्त मुनि कभी भी सूत्र में कही हुई अर्थात् सचित्त मिट्टी का स्पर्श न करे, अपने चतुर्थाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [63