________________ वा, अंगुलियाए वा, सिलागाए वा, सिलागहत्थेण वा; न आलिहिज्जा, न विलिहिज्जा, न घट्टिज्जा, न भिंदिज्जा; अन्नं न आलिहाविज्जा', न विलिहाविज्जा, न घट्टाविज्जा, न भिंदाविज्जा; अन्नं आलिहंतं वा, विलिहंतं वा, घटुंतं वा, भिंदंतं वा न समणुजाणिज्जा; जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं, वायाए, काएणं; न करेमि, न कारवेमि, करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि। तस्स भंते! पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि॥१॥[सूत्र // 14 // ] स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा, संयत-विरत-प्रतिहत-प्रत्या-ख्यांतपापकर्मा; दिवा वा, रात्रौ वा, एकको वा, परिषद्तो वा, सुप्तो वा, जाग्रता; स पृथिवीं वा, भित्तिं वा, शिलां वा, लेष्टं वा, सरजस्कं वा कायम्, सरजस्कं वा वस्त्रम्; हस्तेन वा, पादेन वा, काष्ठेन वा, कलिजेन वा, अङ्गल्या वा, शलाकया वा, शलाका हस्तेन वा; नालिखेत् , न विलिखेत् , नघट्टयेत्, न भिन्द्यात्; अन्येन नालेखयेत्, नविलेखयेत्, न घट्टयेत्, न भेदयेत्; अन्यमालिखन्तवा, विलिखन्तं वा, घट्टयन्तं वा, भिन्दन्तं वा न समनुजानीयात्; यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन, मनसा, वाचा, कायेन; न करोमि, न कारयामि, कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजा-नामि। तस्य भदन्त!' प्रतिक्रामामि, निन्दामि, गर्हे, आत्मानं व्युत्सृजामि॥१॥[ सूत्र // 14 // ] __ पदार्थान्वयः-से-वह पूर्वोक्त पाँच महाव्रतों को धारण करने वाला भिक्खू वाभिक्षु अथवा भिक्खुणी वा-भिक्षुणी-साध्वी, जो कि संजय-निरन्तर यत्नशील विरय-नाना प्रकार के व्रतों में रत पडिहय-कर्मों की स्थिति को प्रतिहत करने वाले पच्चक्खायपावकम्मेतथा जिन्होंने पापकर्म के हेतुओं का प्रत्याख्यान कर दिया है ऐसे दिआ वा-दिन के विषय अथवा राओ वा-रात्रि के विषय अथवा एगओ वा-अकेले हों अथवा परिसागओ वा-परिषद् में बैठे हुए हों अथवा सुत्ते वा-सोते हुए हों अथवा जागरमाणे वा-जागते हुए हों से-जैसे कि पुढवीं वा-पृथ्वी को अथवा भित्तिं वा-नदी के तट की मिट्टी को अथवा सिलं वा-शिला को अथवा . 1 प्राचीनकाल में छात्रों को प्राथमिक दशा में भूमि पर ही लेखन का अभ्यास कराया जाता था, यह उक्त पद से स्पष्टतः प्रतिभासित होता है। दशवैकालिकसूत्रम् [चतुर्थाध्ययनम् 62]