________________ करूँ ' ऐसा विचार तो हो जाए परन्तु खाए नहीं, यह केवल भाव से रात्रि-भोजन है, द्रव्य से : नहीं। 3. बुद्धिपूर्वक रात्रि में भोजन कर लेना, द्रव्य और भाव उभय-दोनों-से रात्रि भोजन है। 4. और न रात्रि में भोजन करना और न करने की अभिलाषा रखना, यह द्रव्य और भाव उभय से-दोनों से -रहित भङ्ग है। सूत्र में 'असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा,' पद देकर सूत्रकार ने मद्य-मांस का सर्वथा निषेध सूचित कर दिया है, क्योंकि रात्रि में भोजन करने का निषेध उक्त चारों ही प्रकार के आहार का किया है। मद्य-मांस उक्त चारों प्रकार के आहार में नहीं है। इसलिए इन दो महा अपवित्र पदार्थों का त्याग तो मनुष्य को सर्वथा और सर्वदा के लिए कर रखना चाहिए, क्योंकि ये मनुष्य के किसी भी प्रकार के आहार में ही नहीं गिने जाते। ये मनुष्य-जाति के लिए सर्वथा अयोग्य वस्तुएँ हैं। इच्चेयाइं पंच महव्वयाइं राइभोयणवेरमणछट्ठाई अत्तहियट्ठियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरामि॥१३॥ इत्येतानि पञ्च महाव्रतानि रात्रिभोजनविरमणषष्ठानि आत्महितार्थाय उपसम्पद्य विहरामि॥१३॥ ___पदार्थान्वयः-इच्चेयाइं-इन अहिंसादि पंच महव्वयाई-पाँच महाव्रतों तथा राइभोयणवेरमणछट्ठाइं-रात्रि-भोजन विरमणरूप छठे व्रत को अत्तहियट्टियाए-आत्महित के लिए उवसंपजित्ता णं'-अंगीकार करके विहरामि-विचरता हूँ। . मूलार्थ-इन अहिंसादि पाँच महाव्रतों और रात्रि-भोजन विरमणरूप छठे व्रत को मैं आत्म-हित के लिए अंगीकार करके विचरता हूँ। टीका-मनुष्य को उक्त रात्रि-भोजन-त्याग रूप व्रत, तप तथा पाँच महाव्रतों की रक्षा के लिए करना चाहिए। इसी लिए सूत्र में शिष्य कहता है कि हे भगवन्! पाँच महाव्रत और छठा रात्रिभोजनत्याग-व्रत मैं आत्महित अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति के लिए ग्रहण करके विचरता हूँ। उत्थानिका-चारित्र-धर्म की रक्षा के लिए षट्-काय के जीवों की रक्षा सदैव यत्न से करनी चाहिए। इस विषय का वर्णन करते हुए सूत्रकार प्रथम पृथ्वी-काय के यत्न करने के विषय में कहते हैं: . से भिक्खूवा भिक्खुणी वा, संजय-विरय-पडिहयपच्चक्खाय-पावकम्मे; दिआ वा, राओ वा, एगओ वा, परिसागओ वा, सुत्ते वा, जागरमाणे वा; से पुढवीं वा, भित्तिं वा, सिलं वा, लेलुंवा, ससरक्खं वा कायं, ससरक्खं वा वत्थं; हत्थेण वा, पाएण वा, कटेण वा, किलिंचेण 1 यहाँ पर यह 'ण' वाक्यलंकार में है। चतुर्थाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [61.