________________ हूँगरिहामि-गर्हणा करता हूँ अप्पाणं-आत्मा का वोसिरामि-परित्याग करता हूँ भंते-हे भगवन्! छट्टे-छठे वए-व्रत के विषय में, जो कि सव्वाओ-सब प्रकार से राइभोयणाओ-रात्रि-भोजन . से वेरमणं-विरमण रूप है, उसमें उवट्ठिओमि-मैं उपस्थित होता हूँ। मूलार्थ-हे भगवन् ! पाँच महाव्रतों के बाद छठा व्रत जो रात्रि-भोजन से विरमण रूप है, श्री भगवन् ने प्रतिपादन किया है। इसलिए हे भगवन् ! मैं सब प्रकार से रात्रि भोजन का प्रत्याख्यान करता हूँ।जैसे कि-१ अन्न, 2 पानी, 3 खाद्य 4 स्वाद्य, इन पदार्थों का स्वयं मैं रात्रि में भोजन नहीं करूँ, न दूसरों से रात्रि में भोजन कराऊँ और न रात्रि में भोजन करने वालों की अनुमोदना ही करूँ ; जीवन पर्यन्त तीन करण-कृत-कारित-अनुमोदना से और तीन योग-मन-वचन-काय से न करूँ, न कराऊँ और न करते हुए अन्य की अनुमोदना ही करूँ। हे भगवन् ! उस पाप रूप दण्ड से मैं प्रतिक्रमण करता हूँ, आत्म साक्षीपूर्वक निन्दा करता हूँ, गुरु साक्षीपूर्वक गर्हणा करता हूँ और पाप रूप आत्मा का परित्याग करता हूँ। हे भगवन् ! छठे व्रत के विषय में, जो कि सब प्रकार से रात्रि-भोजन से विरमण रूप है, उसमें मैं उपस्थित होता हूँ। टीका-यह रात्रि-भोजन-विरमण नाम का व्रत प्रथम अहिंसा-महाव्रत की रक्षा के लिए प्रतिपादन किया गया है। इसमें अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य?, इन चारों प्रकार के आहार का त्याग रात्रि के लिए सर्वथा किया जाता है। ' यदि यहाँ यह शङ्का की जाए कि इस रात्रि-भोजन-विरमण व्रत को 'व्रत' क्यों कहा जाता है. 'महाव्रत' क्यों नहीं कहा जाता? इसका समाधान यह है कि महावतों क | पालना जितना कठिन है. इसका पालना उतना कठिन नहीं है। इसलिए यह व्रत 'व्रत' कहलात लाता है, . 'महाव्रत' नहीं कहलाता। इसी लिए इसको मूल-गुणों में भी नहीं गिना जाता, बल्कि उत्तरगुणों में गिना जाता है। तो फिर इसका सूत्र महाव्रतों के ही पश्चात् क्यों पढ़ा गया है ? उत्तरगुणों में उसको पढ़ना चाहिए था ? इसका समाधान यह है कि प्रथम तथा अन्तिम तीर्थंकर के समय जो ऋजु-जड़ और वक्र-जड़ लोग पैदा हो जाते हैं, उनके लिए इसका पाठ महाव्रत के पाठ के पश्चात् ही रक्खा गया है और इस पाठ्यक्रम से यह सिद्ध होता है कि यद्यपि यह रात्रिभोजन-विरमण व्रत महाव्रत नहीं है, तो भी महाव्रत की भाँति ही इसका पालन करना चाहिए। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव तथा इनके मिश्रामिश्र की दृष्टि से इसके अनेक भेद हो . जाते हैं। जैसे कि-द्रव्य से अशनादि, क्षेत्र से अढ़ाई द्वीपों में, काल से रात्रि में और भाव से रागद्वेष-रहित होकर इसका पालन करना चाहिए। इसके अतिरिक्त इसके भेद और तरह से भी हो सकते हैं। जैसे कि-१. रात्रि में अशनादि ग्रहण करना और रात्रि में खाना, 2. रात्रि में ग्रहण करना और दिन में खाना, 3. दिन में ग्रहण करना और रात्रि में खाना, 4. दिन में ग्रहण करना और दिन में ही खाना। इन चारों भङ्गों में से प्रथम के तीन भङ्ग साधु के लिए अशुद्ध -अग्राह्य-हैं और अन्त का चौथा एक शुद्ध-ग्राह्य है। द्रव्य और भाव की अपेक्षा से भी रात्रिभोजन के चार भङ्ग होते हैं। जैसे कि-१. केवल द्रव्य से, 2. केवल भाव से, 3. द्रव्य-भाव उभय से, 4. द्रव्य-भाव उभय रहित से। 1. सूर्योदय या सूर्यास्य का सन्देह रहते हुए जो भोजन किया जाता है, वह केवल द्रव्य से रात्रि-भोजन है, भाव से नहीं। 2. 'मैं रात्रि में भोजन १'अश्यत इत्यशनं मोदकादि: पीयत इति पान जल-दुग्धादि खाद्यत इति खाद्यं ख़र्जूरादिस्वाधत इति स्वाधं ताम्बूलादि। 60] दशवैकालिकसूत्रम् [चतुर्थाध्ययनम्