________________ पदार्थान्वयः-अहावरे-अब भंते-हे भदन्त ! पंचमे-पाँचवें महव्वए-महाव्रत के विषय में परिग्गहाओ-परिग्रह से वेरमणं-निवृत्त होना है भंते-हे भगवन् ! सव्वं-सर्व प्रकार के परिग्गहं-परिग्रह का पच्चक्खामि-मैं प्रत्याख्यान करता हूँ से-जैसे कि अप्पं वा-अल्प मूल्य वाले, अथवा बहुं वा-बहुमूल्य वाले अथवा अणुं वा-सूक्ष्म आकार वाले, अथवा थूलं वास्थूल आकार वाले अथवा चित्तमंतं वा-चेतना वाले, अथवा अचित्तमंतं वा-अचेतना वाले परिग्गहं-परिग्रह को सयं-स्वयं नेव परिगिण्हिज्जा-ग्रहण न करूँ नेव-नहीं अन्नेहिं-औरों से परिग्गह-परिग्रह को परिगिहाविज्जा-ग्रहण कराऊँन-नहीं परिग्गह-परिग्रह को परिगिण्हते वि-ग्रहण करते हुए भी अन्ने-औरों को समणुजाणामि-भला समयूँ जावज्जीवाए-जीवन पर्यन्त तिविहं-त्रिविध तिविहेणं-त्रिविध से मणेणं-मन से वायाए-वचन से काएणं-काय से न करेमि-न करूँ न कारवेमि-न कराऊँ न-नहीं करतंपि-करते हुए भी अन्नं-औरों की समणुजाणामि-अनुमोदना करूँ भंते-हे भगवन् ! तस्स-उसका पडिक्कमामि-मैं प्रतिक्रमण करता हूँ निंदामि-निंदा करता हूँ गरिहामि-गर्हणा करता हूँ अप्पाणं-आत्मा को वोसिरामिछोड़ता हूँ भंते-हे भगवन् ! पंचमे महव्वए-पाँचवें महाव्रत में, जो कि सव्वाओ-संब प्रकार के परिग्गहाओ-परिग्रह से वेरमणं-निवर्तनरूप है, उसमें उवट्ठिओमि-मैं उपस्थित होता हूँ। . मूलार्थ-अब हे भगवन् ! परिग्रह से निवृत् होने को पँचम महाव्रत श्री भगवान् ने प्रतिपादन किया है। इसलिए हे भगवन् ! मैं सब प्रकार के परिग्रह का प्रत्याख्यान करता हूँ। जैसे कि-अल्प वा बहुत, सूक्ष्म वा स्थूल, चेतना वाले पदार्थ वा चेतनारहित पदार्थ; इन सब को मैं स्वयं ग्रहण नहीं करूँ, न औरों से ग्रहण कराऊँ . और न ग्रहण करते हुए दूसरों की अनुमोदना भी करूँ, जीवन पर्यन्त तीन करण-कृतकारित-अनुमोदना से और तीन योग-मन-वचन-काय से; न करूँ, न कराऊँ, न करते हुए दूसरों को भला ही समझू। हे भगवन् ! इस पाप रूप दण्ड का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ,आत्म साक्षीपूर्वक निन्दा करता हूँ।गुरु साक्षीपूर्वक गर्हणा करता हूँ और पाप रूप आत्मा का परित्याग करता हूँ। हे भगवन् ! पाँचवाँ महाव्रत, जो कि सब प्रकार के परिग्रह से विरमण रूप है, उसमें मैं उपस्थित होता हूँ। टीका-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव तथा इनके मिश्रामिश्र की अपेक्षा से परिग्रहत्याग के अनेक भेद होते हैं। जैसे कि जो साधु परिग्रह रखते हैं, वे 'द्रव्य-परिग्रह के धारी' कहला सकते हैं, भाव-परिग्रह के नहीं और कोई द्रव्य से तो परिग्रह न रक्खे अर्थात् बाह्य में परिग्रह उसके पास न दिखाई दे, किन्तु अन्तरङ्ग में परिग्रह रखने के भाव हों- परिग्रह से ममत्व-परिणाम हो-तो वह व्यक्ति 'भाव-परिग्रह का धारी' कहला सकता है, द्रव्य-परिग्रह का नहीं तथा किसी के पास द्रव्य-परिग्रह भी विद्यमान है और भावों में भी परिग्रह के प्रति ममत्व-परिणाम है, तो वह व्यक्ति 'उभय-परिग्रह का धारी' कहलाएगा और जिस महात्मा के पास न तो किसी प्रकार का बाह्य परिग्रह है और न किसी प्रकार का ममत्व-परिणाम अन्तरङ्ग में परिग्रह के प्रति है, वह 'उभयपरिग्रह-रहित' कहलाएगा। इस प्रकार उभयपरिग्रह-रहित आत्मा निज-आत्मगुणों को विकसित करके शीघ्र परमात्म-पद को प्राप्त करती है। शेष वर्णन पूर्ववत्। 58] दशवैकालिकसूत्रम् [चतुर्थाध्ययनम्