________________ न करोमि, न कारयामि, कुर्वतोप्यन्यं न समनुजानामि / तस्य भदन्त! प्रतिक्रामामि, निन्दामि, गहें, आत्मानं व्युत्सृजामि। चतुर्थे भदन्त! महाव्रते उपस्थितोऽस्मि सर्वस्मान्मैथुनाद्विरमणम्॥४॥ [सूत्र // 10 // ] पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन् ! अहावरे-अब चउत्थे-चतुर्थ महव्वए-महाव्रत में मेहणाओ-मैथुन से वेरमणं-निवर्तन होना है भंते-हे भगवन् ! सव्वं-सर्व प्रकार के मेहुणंमैथुन का पच्चक्खामि-मैं प्रत्याख्यान करता हूँ से-जैसे कि देवं वा-देव-सम्बन्धी अथवा माणुसं वा-मानुष-सम्बन्धी, अथवा तिरिक्खजोणियं वा-तिर्यग्योनि-सम्बन्धी मेहुणं-मैथुन का सयं-स्वयं नेव सेविज्जा-मैं सेवन नहीं करूँ अन्नेहिं-औरों से मेहुणं-मैथुन का नेव सेवाविज्जासेवन नहीं कराऊँ मेहुणं-मैथुन का सेवंतेऽवि अन्ने -सेवन करते हुए औरों को भी न समणुजाणामि-भला नहीं समझू जावजीवाए-जीवन पर्यन्त, तिविंह-त्रिविध तिविहेणंत्रिविध से मणेणं-मन से वायाए-वचन से काएणं-काय से न करेमि-न करूँ न कारवैमिन कराऊँ करंतंपि-करते हुए भी अन्नं-अन्य की न समणुजाणामि-अनुमोदना नहीं करूँ भंतेहे भगवन्! तस्स-उसका पडिक्कमामि-मैं प्रतिक्रमण करता हूँ निंदामि-निंदा करता हूँ गरिहामिगर्हणा करता हूँ और अप्पाणं-आत्मा का वोसिरामि-परित्याग करता हूँ भंते-हे भगवन् ! चउत्थे-चतुर्थ महव्वए-महाव्रत के विषय में सव्वाओ-जो कि सर्व प्रकार से मेहुणाओ-मैथुन से वेरमणं-निवृत्तिरूप है उवट्ठिओमि-मैं उपस्थित होता हूँ। मूलार्थ-हे भगवन् ! मैथुन से विरमण करने का चतुर्थ महाव्रत श्री भगवान् ने प्रतिपादन किया है। इसलिए हे भगवन् ! मैं सर्व मैथुन का प्रत्याख्यान करता हूँ।तथा च-देव-सम्बन्धी, मनुष्य-सम्बन्धी और तिर्यग्योनि-सम्बन्धी मैथुन कर्म मैं स्वयं सेवन नहीं करूँ, औरों से सेवन नहीं कराऊँ और सेवन करते हुए अन्य जीवों की अनुमोदना भी नहीं करूँ। जीवन पर्यन्त तीन करण-कृत-कारित-अनुमोदना से और तीन योग-मन-वचन-कायसेन करूँ, न कराऊँ और न करते हुएं (दूसरों)की अनुमोदना ही करूँ।हे भगवन् ! मैं उस पाप रूप दण्ड से प्रतिक्रमण करता हूँ, आत्म साक्षीपूर्वक निन्दा करता हूँ, गुरु-साक्षीपूर्वक गर्हणा करता हूँ और पापरूप आत्मा का परित्याग करता हूँ। हे भगवन् ! चतुर्थ महाव्रत, जो कि सब प्रकार से मैथुन से विरतिरूप है, उसमें मैं उपस्थित होता हूँ। टीका-चार गतियों में से स्त्री-जाति तीन ही गतियों में होती है-देव, मनुष्य और तिर्यश्च में। नरक-गति में स्त्री जाति नहीं होती। इन तीनों स्त्री-सम्बन्धी मैथुन का साधु को परित्याग कर देने से स्त्री मात्र का परित्याग हो जाता है। केवल रति-कर्म का ही नाम मैथुन नहीं है। बल्कि रतिभाव-रागभावविशेष-पूर्वक जीव की जितनी भी चेष्ठाएँ हैं, वे सभी मैथुन हैं। इसी लिए शास्त्रकारों ने मैथुन के अनेक भेद किए हैं। यद्यपि चित्त में इसके उत्पन्न करने वाले अनेक कारण हैं, फिर भी उनमें से 'रूप' एक मुख्य कारण है। उस रूप के दो भेद हैं: एक रूप और दूसरा रूपसहगत द्रव्य। रूप अचित्त कारण है और रूपसहगत द्रव्य सचित्त कारण है। अथवा भूषण-विकल सौन्दर्य को 'रूप' और भूषण -सहित सौन्दर्य को 'रूपसहगत' कहते हैं। शेष वर्णन पूर्ववत् यहाँ भी समझ लेना चाहिए। जैसे कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव 56] दशवैकालिकसूत्रम् [चतुर्थाध्ययनम्