________________ पडिक्कमामि-मैं प्रतिक्रमण करता हूँ निंदामि-निंदा करता हूँ गरिहामि-गर्हणा करता हूँ अप्पाणंआत्मा को वोसिरामि-अलग करता हूँ भंते-हे भगवन्! सव्वाओ-सर्व प्रकार के अदिन्नादाणाओ-अदत्तादान से वेरमणं-विरमण रूप तच्चे-तृतीय महव्वए-महाव्रत में उवट्ठिओमि-मैं उपस्थित होता हूँ। मूलार्थ-अब, हे भगवन् ! तृतीय महाव्रत, जो कि अदत्तादान से निवर्त्तनारूप है, उसे श्री भगवान् ने प्रतिपादन किया है। हे भगवन् ! मैं सब प्रकार के अदत्तादान का प्रत्याख्यान करता हूँ अर्थात् मैं ग्राम में, नगर में, अरण्य में, बिना दिए हुए अल्प, बहुत, सूक्ष्म, स्थूल, चेतन, अचेतन पदार्थ ग्रहण नहीं करूँगा, औरों से ग्रहण नहीं कराऊँगा और ग्रहण करते हुए (दूसरों) का अनुमोदन भी नहीं करूँगा। शेष वर्णन प्राग्वत् जानना चाहिए। हे भगवन् ! मैं अब तृतीय महाव्रत में उपस्थित होता हूँ। टीका-ग्राम, नगर, जंगल, जलाशय, पर्वत, आकाश और पाताल आदि किसी भी जगह; दिन-रात, प्रात:काल और संध्या आदि किसी भी समय; चेतन या अचेतन, थोड़ी या बहुत, छोटी या बड़ी बिना दी हुई किसी भी चीज़ को; मन से, वचन से और काय से न ग्रहण करना, न ग्रहण कराना और न ग्रहण करते हुए को भला मानना, इसका नाम 'अदत्तादान' तीसरा महाव्रत है। पूर्व की तरह इसके भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव तथा मिश्रामिश्र के विकल्प से अनेक भेद हो जाते हैं। उत्थानिका-अब चौथे महाव्रत का वर्णन करते हैं अहावरे चउत्थे भंते ! महव्वए मेहुणाओ वेरमणं। सव्वं भंते ! मेहुणं पच्चक्खामि। से दिव्वं वा, माणुसं वा, तिरिक्खजोणियं वा, नेव सयं मेहुणं सेविज्जा, नेवऽन्नेहिं मेहुणं सेवाविज्जा मेहुणं सेवंतेऽ वि अन्ने नं समणुजाणामि, जावजीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं, वायाए, काएणं, न करेमि, न कारवेमि, करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि। तस्स भंते! पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि। चउत्थे भंते! महव्वए उवट्ठिओमि सव्वाओ मेहुणाओ वेरमणं॥४॥[सूत्र // 10 // ] - अथापरस्मिश्चतुर्थे भदन्त! महाव्रते मैथुनाद्विरमणम्। सर्वं भदन्त! मैथुनं प्रत्याख्यामि। अथ दैवं वा, मानुषं वा, तैर्यग्योनं वा, नैव स्वयं मैथुनं सेवे, नैवान्यैर्मैथुनं सेवयामि, मैथुनं सेवमानानप्यन्यान् न समनुजानामि, यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन, मनसा, वाचा, कायेन, चतुर्थाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [55