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________________ सब प्रकार से मुसावायाओ-मृषावाद से वेरमणं-निवर्तनरूप है उवट्ठिओमि-मैं उपस्थित होता हूँ। - मूलार्थ-अब, हे भगवन् ! मृषावाद से विरमण रूप जो द्वितीय महाव्रत है, उसे श्री भगवान् ने प्रतिपादन किया है। इसलिए हे भगवन् ! उस मृषावाद का मैं प्रत्याख्यान करता हूँ अर्थात् क्रोध से, लोभ से, भय से और हास्य से, न तो स्वयं मैं असत्य बोलँगा, न औरों से बलवाऊँगा और न औरों के असत्य बोलने की अनुमोदना ही करूँगा अर्थात् मैं जीवन पर्यन्त तीन करण-कृत-कारित-अनुमोदना से और तीन योग मन-वचन-काय से असत्य बोलने का पापन करूँ, न औरों से कराऊँ और दूसरों के करने की अनुमोदना भी न करूँ। उस पापरूप दण्ड से हे भगवन् ! मैं प्रतिक्रमण करता हूँ, आत्म साक्षीपूर्वक निन्दा करता हूँ, गुरूसाक्षीपूर्वक गर्हणा करता हूँ और पापरूप आत्मा का परित्याग करता हूँ। इस तरह हे भगवन् ! द्वितीय महाव्रत, जो कि सब प्रकार के मृषावाद से विरमण रूप है, उसमें मैं उपस्थित होता हूँ। टीका-गुरु-शिष्य के संवादपूर्वक जैसे पहले महाव्रत का वर्णन सूत्रकार ने किया है, उसी प्रकार इस दूसरे महाव्रत का भी वर्णन उन्होंने किया है और इसी प्रकार शेष तीनों महाव्रत का वर्णन आगे करेंगे। क्रोध, मान, माया और लोभ, इस तरह कषाय चार हैं। उनमें से उक्त सूत्र में आदि का क्रोध और अन्त का लोभ, ये दो कषाय ग्रहण किए गए हैं। वे आदि और अन्त के कषाय हैं, इसलिए प्रत्याहार-परिपाटी से बीच के मान और माया को भी वहाँ ग्रहण समझना चाहिए और उपलक्षण से प्रेम, द्वेष और कलह को भी ग्रहण कर लेना चाहिए। मृषावाद-असत्य-के चार भेद हैं-१. सद्भाव-प्रतिषेध, 2. असद्भावोद्भावन, 3. अर्थान्तर और '4. गरे / 1. सद्भावप्रतिषेध-असत्य उसे कहते हैं जिसमें विद्यमान वस्तु का निषेध किया जाए। जैसे कि 'आत्मा का अस्तित्व है ही नहीं,' 'पुण्य-पापादि हैं ही नहीं' इत्यादि। 2. असद्भावोद्भावन-असत्य उसे कहते हैं, जिसमें अविद्यमान वस्तु का अस्तित्व सिद्ध किया जाए जैसे कि 'ईश्वर जगत का कर्ता है.' 'आत्मा सर्वत्र व्यापक है' इत्यादि। 3. अर्थान्तरअसत्य उसको कहते हैं, जिसमें कि पदार्थ का स्वरूप विपरीत प्रतिपादन किया जाए। जैसे कि 'अश्व को गौ और गौ को हस्ति कहना' इत्यादि। 4. गर्हा-असत्य उसको कहते हैं, जिसके बोलने से दूसरों को कष्ट हो। जैसे कि 'काने को काना कहना', 'रोगी को रोगी कहकर संबोधन करना' इत्यादि / एक दूसरी तरह से चार भेद असत्य के और भी होते हैं-१. द्रव्य-असत्य, 2. क्षेत्र-असत्य, 3. काल-असत्य, और 4. भाव-असत्य। ये चारों ही प्रकार के असत्य महाव्रती को त्यागने चाहिए। इसके अतिरिक्त इनके परस्पर संयोग से भी असत्य के अनेक भेद होते हैं / वे भी उसे त्यागने चाहिए। सत्य महाव्रत को धारण करने वाले अर्थात् सर्वथा सत्यवादी पुरुष को प्रत्येक समय बड़ी सावधानी से बोलना चाहिए। बोलते समय सदैव उपयोग को सावधान रखना चाहिए। तभी वह अपने व्रत की रक्षा कर सकता है। अन्यथा व्रत की रक्षा असाध्य नहीं तो कष्टसाध्य अवश्य है। उत्थानिका-अब सूत्रकार तृतीय महाव्रत के विषय में कहते हैं: अहावरे तच्चे भंते! महव्वए अदिनादाणाओवेरमणं। सव्वं भंते ! अदिन्नादाणं पच्चक्खामि। से गामे वा, नगरे चतुर्थाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [53
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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