________________ हिंसा ही है, इसलिए उसकी निवृत्ति करने वाला ‘अहिंसा-महाव्रत' भी सब से मुख्य है / शेष चार महाव्रत 'अहिंसा-महाव्रत' की रक्षा के लिए धारण किए जाते हैं। सूत्र के आरम्भ में जो 'पढमे भंते! पाणाइवायाओ वेरमणं' इतना पाठ है, वह गुरु की ओर का वचन है। शेष सब शिष्य की ओर से वचन हैं, क्योंकि आगे उसे जो-जो कुछ करना है, उसकी श्री भगवान् की साक्षीपूर्वक वह प्रतिज्ञा कर रहा है। सूत्र में जो ‘पच्चक्खामि' पद आया है, उसकी एक तो संस्कृत छाया होती है-'प्रत्याख्यामि' / इसमें 'ख्या प्रकथने' धातु से प्रति और आङ् उपसर्ग लगाया गया है। 'ख्या' का अर्थ है-'कहना', 'प्रति' का अर्थ है-'प्रतिषेध-निषेध' और 'आङ्' का अर्थ है-'अभिविधि' / कुल मिलाकर अर्थ हुआ'हिंसा को सर्वथा छोड़ना' / 'पच्चक्खामि' की दूसरी संस्कृत छाया 'प्रत्याचक्षे' भी हो सकती है। इसका अर्थ होता है - 'संवृतात्मा साम्प्रतमनागतप्रति-षेधस्यादरेणाभिधानं करोमि' अर्थात् संवृतात्मा-सम्यक्-दर्शन और सम्यक्-ज्ञान सहित-अब मैं आदरपूर्वक आगामी त्याग के लिए हिंसादि पापों के निषेध के लिए उद्यत होता है। इससे यह बात बिल्कल स्पष्ट हो गई कि जिस तरह काले कपड़े पर कोई रंग नहीं चढ़ सकता, उसी तरह सम्यक्-दर्शन और सम्यक्ज्ञान से रहित आत्मा सम्यक्-चारित्र को धारण नहीं कर सकती। प्रथम महाव्रत का पालन करने के लिए जीव को सूक्ष्म और बादर तथा त्रस और स्थावर जीवों के स्वरूप को भलीभाँति जान लेना चाहिए। सूक्ष्म त्रस-कुन्थ्वादि-जानने चाहिए, न तु सूक्ष्म नाम-कर्मोदय से सूक्ष्म जीव। . .. यहाँ यदि यह कहा जाए कि सूत्र में जहाँ 'प्राणातिपात' शब्द ग्रहण किया गया है, वहाँ 'जीवातिपात' क्यों नहीं ग्रहण किया गया? इसका समाधान यह है कि जीव का तो अतिपात-नाश-होता ही नहीं। वह तो सदा नित्य है। अतिपात-वियोग-केवल प्राणों का होता है। किन्तु प्राणों के वियोग से ही जीव को अत्यन्त दुःख उत्पन्न होता है। इसी लिए उसका निषेध किया गया है और सूत्र में 'प्राणातिपात' शब्द रक्खा गया है। यदि यहाँ यह शंका की जाए कि सूत्र के 'नेव सयं पाणे अइवाइज्जा' वाक्य में क्रिया पद लेट् लकार का दिया गया है और वह भी अन्य पुरुष का। अतः इसका अर्थ यहाँ घटित नहीं होता ? इसका समाधान यह है कि यह प्राकृत भाषा है। इस भाषा में 'व्यत्ययश्च' सूत्र के अनुसार कई जगह तिङ् प्रत्ययों, पुरुषों एवं वचनों का भी व्यतिक्रम हो जाता है। इस लिए 'अइवाइज्जा' पद को लट् लकार के उत्तम पुरुष का एकवचन समझना चाहिए अथवा 'वर्तमानाभविष्यन्त्योश्च ज्ज ज्जा वा' इस वा' इस हैम सत्र के द्वारा वर्तमान और भविष्यत् के सर्व पुरुषों और सर्व वचनों में भी ‘ज ज्जा' प्रत्यय होते हैं। . सूत्र में 'भदंत' शब्द अनेक बार आया है, वह यह सूचित करता है कि शिष्य को प्रत्येक कार्य के लिए गुरु से बार-बार विनयपूर्वक आज्ञा लेनी चाहिए। हिंसा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से तथा द्रव्य-हिंसा और भाव-हिंसा के भेद से एवं इनके अनेकानेक मिश्रितामिश्रित भेद से अनेक प्रकार की होती है। सम्पूर्ण पाठ का सारांश इतना ही है कि हे भगवन् ! मैं सब प्रकार से प्राणातिपात से निवृत्त होता हूँ और इस महाव्रत में उपस्थित होता हूँ। उत्थानिका-अब सूत्रकार प्रथम महाव्रत के पश्चात् द्वितीय महाव्रत के विषय में कहते हैं: चतुर्थाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [51