________________ तसं वा-त्रस जीव के अथवा थावरं वा-स्थावर जीव के पाणे-प्राणों को नेव सयं अइवाइज्जास्वयं अतिपात-हनन-नहीं करूँ नेव-नहीं अन्नेहिं-औरों से पाणे-प्राणों का अइवायाविज्जाहनन कराऊँ, तथा पाणे-प्राणों के अइवायंतेवि अन्ने-हनन करते हुए औरों को भी न समणजाणामि-भला नहीं समझंजावज्जीवाए-जीवन पर्यन्त तिविहं-त्रिविध तिविहेणं-त्रिविध से मणेणं-मन से वायाए-वचन से काएणं-काय से न करेमि-नहीं करूँ न कारवेमि-औरों से नहीं कराऊँ करंतंपि अन्नं-करते हुए औरों को भी न समणुजाणामि-भला नहीं समझू तस्स -उससे भंते -हे गुरो ! पडिक्कमामि-मैं प्रतिक्रमण करता हूँ निंदामि-आत्मसाक्षी से निंदा करता हूँ गरिहामि-गर्हणा करता हूँ तथा अप्पाणं-अपनी आत्मा को वोसिरामि-छोड़ता हूँ-हटाता हूँ भंते-हे गुरो ! पढमे-प्रथम महव्वए-महाव्रत में, जो कि सव्वाओ पाणाइवायाओ-सब प्रकार के प्राणातिपात से वेरमणं-निवृत्तिरूप है उवट्ठिओमि-उपस्थित होता हूँ। .. . . मूलार्थ-हे भगवन् ! प्रथम महाव्रत प्राणातिपात से विरमण रूप है। अतः हे. भगवन् ! मैं सब प्रकार से प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूँ। जैसे कि-सूक्ष्म, बादर, त्रस और स्थावर प्राणियों की मैं हिंसा न करूँ, न औरों से उनकी हिंसा कराऊँ और जो प्राणियों की हिंसा करते हैं, उन्हें भला भी नहीं समझें। जीवन पर्यन्त तीन करण-कृत, कारित और अनुमोदना से और तीन योग-मन, वचन और काय से, न करूँ, न कराऊँ और करते हुए की अनुमोदना भी नहीं करूँ। मैं उस हिंसारूप दण्ड से पीछे हटता हूँ, आत्म-साक्षीपूर्वक उसकी निन्दा करता हूँ और गुरु की साक्षीपूर्वक गर्हणा करता हूँ तथा अपनी आत्मा को पाप से पृथक् करता हूँ। इस तरह से हे भगवन् ! अब मैं प्रथम महाव्रत अर्थात् प्राणातिपात-विरमण के विषय में उपस्थित होता हूँ। टीका-पूर्व के सूत्र में भी अहिंसा का ही वर्णन है-हिंसा का निषेध है। लेकिन वह सामान्य है। इस सत्र में उसका विशेष वर्णन है। उस अहिंसा की रक्षा के लिए जीव को पाँच महाव्रत धारण करना चाहिए। यदि यहाँ यह शङ्का की जाए कि इन व्रतों को 'महाव्रत' क्यों कहा जाता है ? तो उसका उत्तर यह है कि-१. इन व्रतों को धारण करने वाली आत्मा अति उच्च हो जाती है। यहाँ तक कि इन्द्र और चक्रवर्ती तक उसको मस्तक झुकाते हैं, इसलिए ये 'महाव्रत' कहलाते हैं / 2. संसार का सर्वोच्च ध्येय जो मोक्ष है, उसके ये अति निकट साधक हैं, इसलिए ये 'महाव्रत' कहलाते हैं / 3. बड़े-बड़े राजा, महाराजा, चक्रवर्ती, वीर ही इनको धारण कर सकते हैं-पाल सकते हैं, इसलिए ये 'महाव्रत' कहलाते हैं। 4. श्रावकों के लिए जो व्रत कहे गए हैं, वे 'अणु' हैं। उनको धारण करते हुए श्रावक अपनी गृहस्थी के काम भी साध सकता है; शरीर के भोगोपभोग भी भोग सकता है, लेकिन इनमें उसकी रत्ती भर भी समाने की जगह नहीं है; पाप के आने का एक भी छिद्र कहीं से बाकी नहीं रह जाता है; सकलरूप से ये धारण किए जाते हैं; इसलिए भी इनको 'महाव्रत' कहा जाता है अर्थात् इनमें हिंसा, झूठ, चोरी , कुशील और परिग्रह, इन पाँच पापों का जो त्याग किया जाता है, वह सम्पूर्ण द्रव्यों की अपेक्षा से, सम्पूर्ण क्षेत्रों की अपेक्षा से, सम्पूर्ण कालों की अपेक्षा से और सम्पूर्ण भावों की अपेक्षा से किया जाता है। इन व्रतों की समस्त सूक्ष्मताओं का वर्णन शास्त्रकार स्वयं आगे करने वाले हैं। एक शंका यहाँ यह और हो सकती है कि पाँचों महाव्रतों में से पहले 'अहिंसामहाव्रत' ही क्यों कहा जाता है ? इसका समाधान यह है कि सब पापों में से मुख्य पाप एक 50] दशवैकालिकसूत्रम् [चतुर्थाध्ययनम्