________________ पदार्थान्वयः-इच्चेसिं-इन छह-छ: जीवनिकायाणं-जीवों के काय के विषय में सयं-आप ही दंडं-हिंसारूप दण्ड को नेव समारंभिज्जा-न समारम्भ करे नेव-ना ही अन्नेहिंऔरों से दंडं-हिंसारूप दण्ड समारंभाविज्जा-समारम्भ कराए दंडं-हिं सारूप दण्ड को समारंभंतेऽवि-समारम्भ करते हुए भी अन्ने-अन्य जीवों को न समणुजाणिज्जा-भला न समझे जावज्जीवाए-जीवन पर्यन्त तिविहं-त्रिविध-कृत, कारित और अनुमोदना से तिविहेणं-तीन योग से मणेणं-मन से वायाए-वचन से काएणं-काय से न करेमि-न करूँन कारवेमि-न कराऊँ अन्नं-अन्य करंतंपि-करते हुए को भी न समणुजाणामि-भला न समझू भंते -हे भदन्त! तस्स-उस दण्ड को पडिक्कमामि-प्रतिक्रमण करता हूँ निंदामि-निन्दा करता हूँ गरिहामि-गर्हणा करता हूँ अप्पाणं-आत्मा को वोसिरामि-छोड़ता हूँ। _ मूलार्थ-इन छः काय के जीवों को जीव स्वयं दण्ड समारम्भ न करे, न . औरों से दण्ड समारम्भ कराए, दण्ड समारम्भ करते हुए अन्य जीव को भला भी न समझे। जब तक इस शरीर में जीव है तब तक तीन करण -कृत, कारित और अनुमोदना से तथा तीन योग-मन, वचन और काय से, हिंसादि क्रियाएँ न करूँ, न औरों से कराऊँ और न करते हुए अन्य की अनुमोदना ही करूँ। हे भगवन् ! मैं उस वक्ष्यमाण दण्ड से प्रतिक्रमण करता हूँ, आत्म-साक्षीपूर्वक निन्दा करता हूँ, गुरु के साक्षीपूर्वक गर्हणा करता हूँ और अपनी आत्मा को उस पाप से पृथक् करता हूँ। टीका-इस सूत्र में षट्-काय का 'दण्ड' विषय कथन किया गया है। जैसे कि-जीव, उक्त षट्-काय को स्वयमेव दण्डित न करे और न औरों से दण्डित कराए। इतना ही नहीं, किन्तु जो षट्-काय के जीवों की हिंसा करते हैं, उनकी अनुमोदना भी न करे। यही नहीं मन से, वचन से और काय से कदापि हिंसा न करे। इस प्रकार श्री भगवान् की शिक्षा को शिष्य ने श्रवण किया, तब उसने कहा कि-हे भगवन् ! मैं जीवन पर्यन्त तीन करण और तीन योग से हिंसादि दण्ड स्वयं न करूँ और न औरों से कराऊँ तथा जो हिंसादि कार्य करते हैं * उनकी अनुमोदना भी नहीं करूँ। हे भगवन् ! मैं उक्त दण्ड से प्रतिक्रमण करता हूँ, आत्मसाक्षी से उसकी निन्दा करता हूँ, गुरु की साक्षी से उस पाप की गर्हणा करता हूँ और अपनी आत्मा को उस पाप से पृथक् करता हूँ अर्थात् पापरूप आत्मा का परित्याग करता हूँ। सूत्र में सूत्रकार ने जो ‘पडिक्कमामि'- 'प्रतिक्रामामि' क्रिया पद दिया है, उसका तात्पर्य भूतकालसम्बन्धी पापों का प्रायश्चित्त करना है, क्योंकि वर्तमान काल के पापों का प्रायश्चित करने को 'संवर' और भविष्यत्काल के पापों का प्रायश्चित करने को 'प्रत्याख्यान' कहते हैं। तब फिर यहाँ यह शङ्का पैदा होती है कि भविष्यत्कालीन और वर्तमानकालीन पापों के प्रायश्चित का बोधक सूत्र में कौन-सा शब्द है ? इसका समाधान यह है कि 'अप्पाणं वोसिरामि'- 'आत्मानं व्यत्सजामि' यह पद तो भविष्यत्कालीन पापों के प्रायश्चित के लिए है और 'न करेमि' _ 'न करोमि' पद वर्तमानकालीन पापों के प्रायश्चित के लिए है। सत्र में आए हए 'भंते !' शब्द की तीन छाया होती है 'भदन्त ! भवान्त ! और भयान्त !' इनमें से यहाँ पर चाहे कोई भी छाया ग्रहण की जा सकती है, क्योंकि वे तीनों गुरु के निमन्त्रण करने वाले हैं, जो कि गुरु की विनय करने के सूचक हैं। 'इच्चेसिं छण्हं जीवनिकायाणं' शब्द में जो षष्ठी विभक्ति दी गई है, उस जगह 'सुपां सुपो भवति' सूत्र से सप्तमी भी मानी जा सकती है। कुछ लोग केवल मन से ही 48] दशवैकालिकसूत्रम् [चतुर्थाध्ययनम्