________________ जीव दुःख से त्रास पाता रहता है तो कोई जीव दुःख को देखकर भाग जाता है तथा कितने ही जीव गमनागमन का ज्ञान भलीभाँति रखते हैं। . यदि यहाँ पर शंका की जाए कि सूत्र में जब 'अभिक्कंतं-पडिक्वंतं'-'अभिक्रान्तप्रतिक्रान्त' पद दे दिए गए हैं तब फिर 'आगइगई' - 'आगतिगति' देने की क्या आवश्यकता थी? इसका उत्तर यह है कि जैसे घोड़े हैं, वे भूलकर कहीं चले गए हों तो लौटकर अपने घर पर वापिस भी आ जाते हैं तथा यदि उन्हें पीछे हटाया जाए या आगे चलाया जाए तो वे यह भी जानते हैं कि हमें पीछे हटाया जा रहा है या आगे बढ़ाया जा रहा है। इसके अतिरिक्त त्रस जीवों में जो ‘ओघ' संज्ञा होती है, उससे वे धूप से अरुचि होने पर छाया में और छाया से अरुचि होने पर धूप में चले जाते हैं। इस तरह से त्रस-जीवों का विशिष्ट विज्ञान बतलाने के लिए 'आगइगइविन्नाया' पद सूत्रकार ने दिया है। यहाँ यदि यह शङ्का की जाए कि सूत्रकार को आगे जब द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय आदि जीव ग्रहण करने ही थे तो फिर उससे पहले 'कीडपयंगा' और 'कुंथुपिवीलिया'- 'कीटपतङ्गा'और 'कुन्थुपिपीलिकाः' क्यों दिए? इसका समाधान यह है कि सूत्र की गति विचित्र होती है-वह क्रम से अतन्त्र भी रहती है। सत्र में जो 'परमाहम्मिआ' पद दिया गया है, उसका अर्थ है 'परमधर्माणः-परमसुखाभिलाषिण इत्यर्थः' अर्थात् 'उत्कृष्ट सुख के अभिलाषी' / यहाँ पर 'परमा' में मकार को दीर्घ 'अतः समुद्ध्यादौ वा' हैमसूत्र से हुआ है। . उत्थानिका-ऊपर के सूत्र में कहा गया है कि पाँचों ही स्थावर और छठे त्रस, ये सब प्राणी अपने अपने सुखों के इच्छुक हैं। कोई भी प्राणी दुःख की मात्रा को नहीं चाहता। अतएव सब प्राणी रक्षा के योग्य हैं। इसलिए किसी भी प्राणी की हिंसा न करनी चाहिए। अतः अब सूत्रकार इसी विषय में कहते हैं: इच्चेसिं छण्हं जीवनिकायाणं नेव सयं दंडं समारंभिज्जा, नेवन्नेहिं दंडं समारंभाविज्जा, दंडं समारंभंतेऽवि अन्ने न समणुजाणिज्जा, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं, वायाए, काएणं, न करेमि, न कारवेमि, करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि। तस्स भंते! पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि॥६॥ . इत्येतेषां षण्णां जीवनिकायानां नैव स्वयं दण्डं समारभेत्, नैवान्यैः दण्डं समारम्भयेत्, दण्डं समारभमाणानप्यन्यान् न समनुजानीयात्, यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन, मनसा, वाचा, कायेन, न करोमि, न कारयामि, कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि। तस्य भदन्त ! प्रतिक्रामामि, निन्दामि, गर्हे, आत्मानं व्युत्सृजामि॥६॥ चतुर्थाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [47