________________ चेतना वाले कथन किए गए हैं, अनेक जीव पृथक् रूप से उसमें आश्रित हैं, शस्त्र-परिणत को छोडकर। वनस्पतिकाय के जीव चेतना वाले कहे गए हैं, अनेक जीव पृथक-पृथक रूप से उसमें आश्रित हैं, शस्त्र-परिणत को छोड़कर। जैसे कि-१ अग्र-बीज, 2 मूलबीज, 3 पर्व-बीज,४ स्कन्ध बीज 5 बीज-रूह, 6 सम्मूर्छिम, 7 तृण, 8 लता। वनस्पतिकायिक जीव बीज के साथ वनस्पति-चेतना वाले कथन किए गए हैं, अनेक जीव पृथक् रूप से उसमें आश्रित हैं, शस्त्र-परिणत को छोड़कर। टीका-सूत्र में आए 'चित्तमंतमक्खाया'- शब्द की संस्कृत छाया 'चित्तमात्राख्याता' भी होती है और इसका अभिप्राय, पाँचों स्थावरों में चेतना अल्प मात्रा में बतलाने का है, क्योंकि 'मात्र' शब्द अल्पवाचक है तथा च टीकाकार:-'अत्र मात्रशब्दः स्तोकवाची। यथा-सर्षपत्रिभागमात्रमिति। ततश्च चित्तमात्रा-स्तोकचित्तेत्यर्थः' अर्थात् यहाँ पर 'मात्र' शब्द स्तोक-अल्प-का वाचक है। जैसे कि 'सरसों का तिहाई हिस्सामात्र' यहाँ पर 'मात्र' शब्द अल्पवाचक है। इसलिए 'चित्तमात्र' का अर्थ 'अल्प चेतना वाले' है। मोहनीय कर्म के प्रबलोदय से एकेन्द्रिय जीव अत्यन्त अल्प चेतना वाले होते हैं। उससे कुछ अधिक विकसितचेतनक द्वीन्द्रिय जीव होते हैं। इसी तरह आगे भी उत्तरोत्तर जीवों को विकसित-चेतनक समझना चाहिए। __यहाँ यह शङ्का उत्पन्न होती है कि सूत्र में षट्काय के जीवों में से सब से पहले पृथ्वी-काय का वर्णन क्यों किया ? तथा उसके बाद में अप्काय आदि का वर्णन क्यों किया? इसका समाधान यह है कि पृथ्वी सर्वभूतों का आधार और सब से अधिक है। इसलिए सब से पहले पृथ्वी-काय का वर्णन है। पृथ्वी पर आश्रयरूप से ठहरा हुआ और उससे कम जल है। इसलिए उसके बाद अप्काय का वर्णन है ? जल का प्रतिपक्षी तेजः-अग्नि-है। इसलिए उसके बाद तेजस्काय का वर्णन है ? तेजस्काय के जीवन का साधनभूत वायु है। वायु अग्नि का सखा माना जाता है, क्योंकि वायु की वजह से अग्नि वृद्धिंगत और प्रज्वलित होती है। इसलिए उसके बाद वायु-काय का वर्णन है। वायु के कारण से प्रकम्पित होने वाली वनस्पति है, वायु का प्रबल प्रभाव वनस्पति पर ही होता है। इसलिए उसके बाद वनस्पति-काय का वर्णन है। वनस्पति-काय का ग्राहक त्रस-काय है, इसलिए उसके बाद त्रस काय का वर्णन है। काठिन्य लक्षण वाली पृथ्वी है; द्रवीभूत लक्षण वाला जल है; उष्ण लक्षण वाली अग्नि है; चलन लक्षण वाली वायु है; लतादिरूप वनस्पति है; त्रसनशील त्रस हैं / 'अणेगजीवा' शब्द का अर्थ है कि 'ये काय, जीवों का समूहरूप हैं' 'पुढोसत्ता'-'पृथक्सत्त्वा' का अर्थ है कि वे जीव परस्पर में भिन्न शरीर धारण करने वाले हैं। जैसे कि -एक तिल-पापड़ी में जो अनेक तिल होते हैं, वे परस्पर में भिन्न होते हैं। उसी तरह एक सर्षप-प्रमाण मिट्टी में असंख्यात जीव पृथक्-पृथक् शरीर धारण करने वाले होते हैं। - यहाँ पर यह शङ्का उत्पन्न होती है कि पृथ्वी जब जीवों का पिण्डरूप ही है, तब संयम-क्रिया किस तरह पालन की जा सकती है, क्योंकि सब क्रियाएँ पृथ्वी पर ही तो की जाती हैं ? इसका समाधान यह है कि सूत्र में सूत्रकर्ता ने इसी लिए 'शस्त्रपरिणत' शब्द रक्खा है। जो काय-शस्त्र के द्वारा खण्डित-विदारित -हो जाएगी, वह अचित्त-जीव-रहित-हो 1 'पृथक् भूताःसत्त्वाः-आत्मानो यस्यां सा पृथक्सत्त्वा। अङ्गुलासंख्येयमात्रावगाहनया पारमार्थिक्या अनेकजीवसमाश्रितेति भावः'। चतुर्थाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [43