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________________ जाएगी। द्रव्य-शस्त्र तीन प्रकार से वर्णन किया गया है। जैसे कि-१. किञ्चित्-स्वकायशस्त्र-काली मिट्टी का संयोग यदि नीलादि मिट्टियों से हो जाए तो वे दोनों मिट्टियाँ परस्पर मर्दन करने से अचित्त हो जाती हैं। यह उदाहरण मिट्टी के वर्ण-गुण की अपेक्षा से है। ठीक इसी प्रकार गन्ध, रस और स्पर्श के भेदों की अपेक्षा से भी शस्त्र की योजना कर लेनी चाहिए। 2. किञ्चित्-परकाय-शस्त्र-मिट्टी को यदि अप्काय, तेजस्काय आदि का भी स्पर्श हो जाए तो फिर वह भी अचित्त हो जाती है और इस तरह से अचित्त हुए काय को परकाय द्वारा अचित्त हुआ कहा जाता है। 3. किञ्चित तदुभय-शस्त्र-कभी-कभी उपरोक्त दोनों स्वकाय और परकाय के शस्त्र से पृथ्वी अचित्त हो जाती है, उसे तदुभय शस्त्र द्वारा अचित्त हुआ कहा जाता है। इस प्रकार अनेक शस्त्रों की योजना कर लेनी चाहिए। कारण कि परस्पर गन्ध, रस और स्पर्शादि द्वारा अनेक प्रकार के स्पर्श स्पर्शित होने से पृथ्वी-काय के जीव च्युत हो जाते हैं। फिर यत्नपूर्वक संयम-क्रियाएँ उस अचित्त पृथ्वी पर भली प्रकार से पालन की जा सकती हैं और अहिंसादि व्रत भी सुखपूर्वक पालन किए जा सकते हैं। जिस प्रकार पृथ्वी-काय का वर्णन किया गया है, ठीक उसी प्रकार अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों के विषय में भी जानना चाहिए। वनस्पति-काय में अन्य पाँचों कायों की अपेक्षा कुछ विशेष वक्तव्य है, इसलिए सूत्रकार ने उसका दोबारा विशेष वर्णन भी किया है। जैसे कि-कोरण्ट आदि वृक्षों के अग्रभाग में बीज होता है, उत्पन्न कंदादि के मूल में बीज होता है, इक्षु आदि के पर्व में बीज होता है, शल्लकी आदि के स्कन्ध में बीज होता है, शाली आदि के बीज के बोने से बीज उत्पन्न होते हैं, वर्षादि के हो जाने से बीज के अभाव होने पर भी तृणादि सम्मूच्छिम उत्पन्न हो जाते हैं, क्योंकि दग्ध-भूमि पर भी वर्षा के कारण तृणादि उत्पन्न होता हुआ दृष्टिगोचर होता है। इस प्रकार वनस्पति के ग्रहण करने से सूक्ष्म बादरादि अशेष वनस्पति का ग्रहण किया गया है। ये उपयुक्त सब प्रकार के वनस्पति-काय सचित्त वर्णन किए गए हैं। यद्यपि वह वनस्पति, एक जीव से लेकर संख्यात, असंख्यात वा अनन्त जीवों की राशि है, किन्तु स्वकाय, परकाय तथा दोनों कायों के प्रतिकूल स्पर्श होने से वह अचित्त हो जाती है। यदि यहाँ शङ्का की जाए कि-सूत्रकार को जब वनस्पति-काय का पूर्ण विवरण करना था, तो फिर साधारण वनस्पति-काय का वर्णन क्यों नही किया ? सूत्र में 'अणेगजीवा पुढोसत्ता' जो पद दिया है, उससे साधारण वनस्पति-काय का ग्रहण नहीं होता ? इसका समाधान यह है कि वह पाठ सामान्य रूप से वर्णन किया है। यदि सामान्य रूप से उक्त पाठ को वर्णन किया हुआ न माना जाए तो सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्तादि भेदों का वर्णन न होने से वह पाठ अपूर्ण मानना पड़ेगा अथवा ऐसा मानना चाहिए कि अविशेष नाम के नियमानुसार इन सूत्रों की रचना की गई है। अविशेष नाम के ग्रहण से विशेष नाम को ग्रहण भी किया जाता 1 कुछ विद्वानों ने इनको अनुमान से सचेतन सिद्ध किया है। यथा- 'सात्मकं जलम्, भूमिखातस्वाभाविकसंभवात्, दर्दुरवत्। सात्मको ग्निः आहारेण वृद्धिदर्शनात्, बालकवत्। सात्मकः पवनः,अपरप्रेरिततिर्यनियमितदिग्गमनाद्, गोवत्।सचेतनास्तरवः सर्वत्वगपहरणे मरणाद्, गर्भवत्।अर्थात्जल सचेतन है, क्योंकि वह भूमि से स्वयमेव पैदा होता है, मेंढक की भाँति / अग्नि सचेतन है, क्योंकि वह आहार करने से बढ़ती है,बालक की भाँति। वायु सचेतन है, क्योंकि वह बिना किसी दूसरे की प्रेरणा से निश्चित दिशा में गमन करती है, गौ की भाँति / वृक्ष सचेतन हैं, क्योंकि उनकी संपूर्ण छाल उतार देने से वे मर जाते हैं, गर्भ की भाँति। 44] दशवैकालिकसूत्रम् [चतुर्थाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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