________________ -13 पादः / बोधकवृत्तिः मित्तडा-हे मित्र मया याहक् प्रियः माषिअउ-अनुज्ञातः ताहग त्वया खेलु-निश्चये नाहि-नहि ज्ञातः / / 11 / / 422. जिवे सुपुरिस ति घंधलइं, जि नइ तिवें वलणाई। जिवे डोंगर तिवं कोट्टरई, हिवा विरहि काई // 11 // यथा यथा सत्पुरुषा बहवः सन्ति तथा तथा 'घंघलई' ( भाषायाम्-जगडा) ( जगदकानि ) भवति, यथा 'नइ' नद्यः तथा वलनानि, यथा पर्वतास्तथा 'कोटरई भाषा याम् कोतराणि ) हे हृदय ? किं खिचसे ? // 11 // 422 जे छड्डेविण रयणनिहि, अप्पउं तहि पन्ति / तह संखहं विट्टालु परु, फुश्किज्जन्त भणन्ति / / 120 // ये शङ्खाः रत्नाकरं समुद्रं 'छड्डेविषु'-त्यक्त्वा ... आत्मानं तटे क्षिपन्ति, तदा तेषां शंखानां फुत्कुर्वाणा सन्तः परं केवलं 'विट्टालु' अधमजना प्रमन्ति // 120 // 422 दिवेहि विद्वत्त, बाहि वढ, संचि म एककुवि द्रम्मु / .... कोवि द्रवक्काज सो पडइ जेण समप्पइ जम्मु // 12 // . हे 'वढ' हे मूर्ख ! देवाजितं खाद, ‘मा संचित्ति' मा सञ्चय एकमपि द्रम्मम्, यतः किमपि तद्भयं पतति, .. येन जन्म समाप्यते // 12 // फोडेन्ति जे हिअडउं अप्पणउं // व्याख्या पूर्ववत् // 422 एकमेक्कउं जइवि जोएदि, हरि सुठु सव्वायरैण / तोवि वेहि जहिं कहिंवि राही, को सरकइ संवरेषि .. है-नयणी नहें पलुट्टा // 122 // 1. सब गोपिकमावि जोएइ . हरि सुछ वि मायरेण देइ दिट्टि बाहिं कहिं वि राही। . __ को सक्कइ संबरेवि, गड-णयप गेहें पकोट्टउ // स्वयंमूच्छदै 4 / 23